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श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ
5.1.2.26 प्रवर्तिनी सज्जन श्री जी ( संवत् 1998 स्वर्गस्थ )
गुलाबी नगरी जयपुर में ही जन्मी, यहीं खेलीं, बड़ी हुई, यहीं विवाहित जीवन जीकर, पति की आज्ञा से दृढ़ निश्चय पूर्वक संवत् 1998 आसाढ़ शुक्ल 2 के दिन आप दीक्षित हुई और प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी की शिष्या बनीं। अपनी सुदीर्घ दीक्षा - पर्याय में आपका सुदीर्घ विचरण इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। भारत के कोने-2 में विचरण कर अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षा दी, अनेक जिनालयों का निर्माण व पुनर्निर्माण करवाया। आपकी काव्य-सर्जना, शास्त्रज्ञता, विद्वत्ता उपदेशकता आदि बहु आयामी प्रतिभा जैनधर्म की विविध प्रभावनाओं से जुड़ी हुई रही। 195 संवत् 2046 में जयपुर संघ ने अखिल भारतीय स्तर पर आपका अभिनन्दन कर आपको 'श्रमणी' नामक अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया, सन् 1992 दिसंबर मास में जयपुर में आपका निधन हुआ, स्थानीय मोहनबाड़ी आपकी स्मृति में एक भव्य स्मारक का निर्माण किया गया। 16
5.1.2.27 श्री विनोद श्रीजी ( संवत् 2000 से वर्तमान )
इनका जन्म संवत् 1987 को भोपाल निवासी भाण्डावत गोत्रीय गेंदमलजी के यहाँ हुआ। संवत् 2000 आषाढ़ कृष्णा 13 को फलौदी में आपकी दीक्षा हुई। व्याकरण, न्याय, जैन साहित्य आदि पर आपका अच्छा अधिकार है। 197
5.1.2.28 श्री कमलश्रीजी ( संवत् 2002 से वर्तमान)
मंदसौर निवासी श्री मन्नालालजी लोढ़ा के यहाँ संवत् 1969 आषाढ़ शुक्ला सप्तमी को इनका जन्म हुआ। संवत् 2002 वैशाख शुक्ला तीज को मंदसौर में दीक्षा लेकर ये चंदनश्रीजी की शिष्या बनीं। 198
5.1.2.29 श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी ( संवत् 2008 से वर्तमान)
संवत् 1995 को बीकानेर में नाहटा गोत्रीय बालचन्द्रजी के यहाँ इनका जन्म हुआ। साहित्य महारथी श्री अगरचंदजी भंवरलालजी नाहटा की आप भतीजी हैं। वैराग्यवासित होकर संवत् 2008 फाल्गुन शुक्ला 12 को खुजनेर (मालवा) में दीक्षा ग्रहण कर विचक्षणश्रीजी की शिष्या बनीं। आप अत्यन्त विदुषी और व्यवहारदक्षा हैं। आपके द्वारा पठित मंगलपाठ बड़ा प्रभावशाली होता है। 14 साध्वियों के साथ आप विचरण कर रही हैं। 199
5.1.2.30 श्री दिव्यप्रभाश्री जी (संवत् 2009 से वर्तमान)
लोहावट निवासी भंसाली गोत्रीय श्री मेघराजजी के घर संवत् 1999 को इनका जन्म हुआ। संवत् 2009 मृगशिर शुक्ला पूर्णिमा को लोहावट में ही श्री पवित्रा श्री के पास दीक्षा ग्रहण की। आप विदुषी और श्रेष्ठ व्याख्यात्री हैं, कई वर्षों से गुजरात की ओर विचरण कर रहीं हैं। आपका शिष्या प्रशिष्या मंडल विस्तृत है | 200
195. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 803
196. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 415
197. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 421 198. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 419 199. खरतरगच्छ का इतिहास, पृ. 417
200. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 419
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