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________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ केतुमंजरी से भी श्रीकृष्ण ने उक्त प्रश्न पूछा, तो उसने कहा “मुझे सेविका बनना है" क्योंकि उसे ज्ञात था कि स्वामिनी कहने पर मुझे दीक्षा लेनी पड़ेगी। उसे शिक्षा देने के लिए श्रीकृष्ण ने एक गरीब बुनकर वीरक के साथ उसकी शादी कर दी और उससे कहा “तुम इससे खूब काम करवाना।" वीरक ने ऐसा ही किया। दरिद्रता और घर के काम-काज से तंग आकर केतुमंजरी ने पिता श्रीकृष्ण के पास संसारी झंझटों से त्राण पाने वाली दीक्षा की अनुमती माँगी। श्रीकृष्ण द्वारा अनुज्ञा मिलने पर उसने भगवान अरिष्टनेमि के पास दीक्षा अंगीकार की।115 2.3.64 एकनाशा एकनाशा मथुरा के राजा कंस की पुत्री थी। वसुदेव व देवकी-पुत्र गजसुकमाल के असामयिक वियोग से यादवगण अत्यन्त व्यथित थे, अनेक लोग इस घटना से बोध प्राप्त कर विरक्ति के मार्ग पर बढ़े। एकनाशा भी बहुत सी यादव कन्याओं के साथ अरिष्टनेमि भगवान के पास प्रव्रजित हुई।16 2.3.65 कमलामेला द्वारका की अत्यन्त रूपवती राजकुमारी कमलामेला का संबंध उग्रसेन के पौत्र धनदेव के साथ सुनिश्चित हुआ, किन्तु नारद के द्वारा सागरदत्त के गुणों की प्रशंसा श्रवण कर यह सागरदत्त की ओर आकृष्ट हो गई। शाम्बकुमार ने अपनी विद्या से कमलामेला का अपहरण कर सागरदत्त के साथ विवाह करवा दिया। धनदेव इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध हुआ किंतु विवश था। जब सागरदत्त भगवान अरिष्टनेमि से श्रावक के द्वादश व्रत ग्रहण कर प्रतिमा में स्थित हुआ धर्मध्यान में लीन था, उस समय धनदेव ने उसे मार दिया। इस घटना से कमलामेला विरक्ति को प्राप्त होकर दीक्षित हो गई। 2.3.66 सुव्रता यह तीर्थंकर अरिष्टनेमि के काल की साध्वी है। महासती द्रोपदी एवं सुभद्रा ने इन्हीं से दीक्षा अंगीकार कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। इससे प्रतीत होता है कि ये प्रवर्तिनी यक्षिणी आर्या के बाद प्रमुखा साध्वी के रूप में विचरण करती हों। 2.3.67 पुष्पचूला __ ये तेइसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रमुख शिष्या थी। श्वेताम्बर ग्रंथों में इनका यही नाम उल्लिखित है। किंतु दिगम्बर ग्रंथों में "सुलोका" व "सुलोचना" नाम दिया है। साध्वी संख्या सर्वत्र अड़तीस हजार है, किंतु उत्तरपुराण में छत्तीस हजार दी है। साध्वी प्रमुखा पुष्पचूला का अन्य इतिवृत अज्ञात है, केवल इतना ही उल्लेख है, कि ये पार्श्व संघ के श्रमणी संस्था की संचालिका थी, हजारों श्रमणियों को इन्होंने शिक्षा-दीक्षा देकर निर्वाण का पथिक बनाया। संपूर्ण आगम 115. आव. नि. हरि. वृ. भा. 2 पृ. 16 116. मुनि नगराजः आगम और त्रिपिटक, खंड 3 पृ. 539 117. प्राप्रोने. भा.2 पृ. 842 118. दृ. ज्ञाता. 1/16 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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