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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.3.60 मूलश्री, मूलदत्ता ये दोनों श्रीकृष्ण की जाम्बवती महारानी के सुपुत्र 'शाम्ब' की पत्नियां थीं। भगवान अरिष्टनेमि की वाणी से प्रतिबोधित होकर शाम्बकुमार ने अपने अन्य भ्राताओं जालि, मयालि आदि के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इन दोनों का मन भी संसार से उद्विग्न हो रहा था। भगवान अरिष्टनेमि के द्वारा द्वारिका-दाह की घटना को सुनकर ये दोनों 'खणं जाणाहि पंडिए' इस आप्त वाक्य का अनुसरण कर अपने श्वसुर श्रीकृष्ण की अनुज्ञा से प्रवर्तिनी यक्षिणी आर्या के पास दीक्षित हो गईं। ग्यारह अंगों की ज्ञाता एवं तप-संयम की उत्कृष्ट आराधिका बनकर इन्होंने भी मुक्ति प्राप्त की।12 2.3.61 कनकवती अंधकवृष्णि के सबसे छोटे पुत्र वसुदेव की अनेक रानियों में एक रानी का नाम कनकवती था। गजसुकुमार के निर्वाण के पश्चात् यादव-कुल के अनेक नर-नारी दीक्षित हुए थे। वासुदेव की महारानियों में देवकी, रोहिणी और कनकवती को छोड़ शेष सभी रानियां भी प्रव्रजित हो गई थी। कनकवती गृहस्थ में रहती हुई भी उत्कृष्ट साधना में लीन रही। एक दिन वह संसार के वास्तविक स्वरूप का चिंतन करते-करते उच्च, निर्मल एवं विशुद्ध परिणामों से घाति कर्मों का क्षय कर केवली बन गई। देवताओं ने उसका कैवल्य-महोत्सव मनाया, तत्पश्चात् कनकवती ने साध्वी-वेश स्वीकारा और भगवान अरिष्टनेमि के समवसरण में गई। एक मास के अनशन के साथ वह सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गई।113 2.3.62 दमयन्ती कनकवती अपने पूर्वभव में निषधराज के पुत्र नल की पत्नी दमयन्ती थी। ऊंचे विचार विनम्र स्वभाव के कारण नारी-समाज में उसका उच्च स्थान था। पति के धुतव्यसन ने इन्हें राज्यश्री से विहीन कर जंगल में भटकने पर विवश कर दिया। वन-विहार के घोर कष्टों का विचार कर नल ने दमयंती को निद्रित अवस्था में अकेली ही अरण्य में छोड़ दिया। दमयंती अनेक कठिनाइयों का साहस के साथ सामना करती हुई अन्ततः अपने पिता के घर पहुंची। वहीं युक्ति र का आयोजन करने पर सारथी के वेश में आये नल से उसका पुनः मिलन हुआ। अंत समय में नल राजा के साथ ही दमयंती ने दीक्षा अंगीकार की, आयु पूर्ण होने पर यह देवी बनी, वहाँ से च्यव कर कनकवती के रूप में वसुदेव की रानी बनी।14 2.3.63 केतुमंजरी केतुमंजरी श्रीकृष्ण की पुत्री थी। श्रीकृष्ण निदान के कारण स्वयं दीक्षा नहीं ले सके, परन्तु वे चाहते थे कि मेरे परिवार में सभी दीक्षा लें, अतः उनकी जो भी पुत्री सयानी होने पर उन्हें प्रणाम करने पहुँचती तो वे आशीर्वाद देते हुए पूछते "बेटी! तुझे स्वामी बनना है या सेविका?" पुत्री कहती- "तात! मुझे स्वामी बनना है, सेविका नहीं।" तब श्रीकृष्ण उसे श्री अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षा लेने की सलाह देते। इस प्रकार श्री कृष्ण की अनेकों पुत्रियों ने श्रमणी-दीक्षा अंगीकार करली थी। 112. (क) अन्तकृ. 5/9-10 (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 607-608 113. मुनि नगराजजी, आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन-खंड 3 पृ. 539 114. त्रि.श.पु.च. पर्व 8 सर्ग 3 122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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