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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ श्रीकृष्ण की अनुज्ञा लेकर श्री अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हो गई। बीस वर्ष तक संयम का पालन कर अंत में केवली होकर सिद्धगति को प्राप्त हुईं।106
2.3.58 सत्यभामा
सत्यभामा मथुरा के राजा उग्रसेन की पुत्री एवं कंस की बहन थी। देवांगना के सदृश रूपवती अपनी बहिन के विवाह हेतु कंस ने घोषणा करवाई कि उसके यहाँ विद्यमान शाडर्ग धनुष को जो वीर पुरूष चढ़ा देगा, उसीके साथ सत्यभामा का पाणिग्रहण किया जाएगा। सत्यभामा को पाने की लिप्सा से अनेक राजकुमार आये, पर धनुष चढ़ाना तो दूर उठाने में भी समर्थ नहीं हुए। उस समय वहाँ उपस्थित श्रीकृष्ण ने पुष्पमाला की तरह शाड,र्गधनुष को उठाया और सबके देखते ही देखते उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। सत्यभामा की मनोकामना पूर्ण हुई, उसने श्रीकृष्ण के गले में वरमाला डाल दी। सत्यभामा ने अपनी बुद्धिमता और व्यवहार-कुशलता से श्रीकृष्ण को अनेक बार कठिन परिस्थितियों में सहयोग दिया। भगवान अरिष्टनेमि के द्वारा उपदिष्ट द्वारिका-दहन प्रसंग को श्रवण कर सत्यभामा ने श्रीकृष्ण की अनुज्ञा से दीक्षा ग्रहण की। प्रवर्तिनी यक्षिणी के सान्निध्य में तप-संयम की आराधना करके बीस वर्ष संयम-पर्याय पालकर मुक्त हो गई।107
__महाभारत में उल्लेख है कि कृष्ण की मृत्यु का समाचार सुनकर उनकी 8 पटरानियों में रूक्मिणी, गांधारी, सह्या हेमावती, जाम्बवती -ये पाँच रानियां चितारोहण करती है, किंतु सत्यभामा सती न होकर तपस्या हेतु वन में चली जाती
हैं।108
2.3.59 रुक्मिणी
कुंडिनपुर के राजा भीष्मक तथा रानी यशोमती की अप्रतिम सुन्दर कन्या का नाम रुक्मिणी था। युवराज रुक्मि की इच्छा के विरूद्ध रुक्मिणी नागपूजा के बहाने नगर के बाहर उद्यान में उपस्थित श्रीकृष्ण के साथ रथ में बैठकर द्वारिका चली गई वहीं श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी का पाणिग्रहण हुआ।109 द्वारिका दहन की घटना का रुक्मिणी के कोमल मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, उसने भी श्रीकृष्ण की अनुज्ञा लेकर भगवान अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षा ग्रहण करली। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके तप और संयम की उत्कृष्टता से वह बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय में निर्वाण को प्राप्त हो गई।
श्रीकृष्ण की इन आठ पटरानियों ने पूर्वभव में भी संयम की आराधना की थी, फलस्वरूप ये राजन्य-कुलों में उत्पन्न हुईं एवं श्रीकृष्ण जैसे अर्द्धचक्रवर्ती की पटरानियाँ बनीं। इन सबके पूर्वभवों का वृत्तान्त हरिवंशपुराण में विस्तृत रूप से वर्णित है।।।।
106. अन्तकृ. 5/6 107. त्रि.श.पु.च. 8/6/65-109; प्राप्रोने 2 पृ. 749; अन्तकृ 5/7 108. महाभारत 16/7/73-74 109. त्रि.श.पु.च. 8/6 110. अन्तकृ 5/8 111. हरि. पु. 60/65
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