________________
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास से पैदा हुई सर्वांगसुन्दरी कन्या थी। द्वारिका दहन की घटना से गौरी का दिल भी दहल उठा। संसार की नश्वरता का दृश्य उसकी आंखों के समक्ष तैरने लगा। श्रीकृष्ण की अनुज्ञा से इसने भी संसार का परित्याग किया। प्रवर्तिनी यक्षिणी के सान्निध्य में रहकर ग्यारह अंगों का अध्ययन व उत्कृष्ट तप की आराधना द्वारा बीस वर्ष में संपूर्ण कर्मों का क्षय कर इसने मुक्ति प्राप्त की।102
2.3.54 गान्धारी
यह गान्धार देश के पुष्कलावती नगरी के राजा इन्द्रगिरि की मेरुमति रानी की अनिन्द्य सौन्दर्यशालिनी कन्या थी। पूर्वजन्म में की गई संयम व तप की साधना के फलस्वरूप ये उस समय के महाप्रतापी सम्राट् वासुदेव श्रीकृष्ण की पट्टमहिषी बनी। श्री अरिष्टनेमि के मुखारविन्द से द्वारिका विनाश की घटना श्रवण कर ये भी संसार से विरक्त हुईं, संसार का परित्याग कर अर्हन्त अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हुईं, बीस वर्ष तक प्रवर्तिनी यक्षिणी के सान्निध्य में ग्यारह अंगों का विधिवत् ज्ञान एवं तप संयम की उत्कृष्टता द्वारा बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय में सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गई।103
2.3.55 लक्ष्मणा
सिंहलद्वीप के राजा हिरण्यलोम की पत्नी सुकुमारा की ये रूप-सम्पन्न कन्या थी। इनके भ्राता द्रुमसेन को मारकर श्रीकृष्ण लक्ष्मणा को द्वारिका लाये। ये भी श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों में एक थी। भगवान अरिष्टनेमि से द्वारिका का दुःखद अंत श्रवण कर ये भी श्रीकृष्ण की अनुज्ञा लेकर यक्षिणी आर्या के पास प्रव्रजित हुईं। बीस वर्ष की संयम पर्याय में ज्ञान व तप की उत्कृष्ट आराधना कर मुक्त हुई।104
2.3.56 सुसीमा
सुसीमा अरक्खुरी नगरी के सुराष्ट्रवर्धन राजा की रानी सुज्येष्ठा की सर्वलक्षण सम्पन्न गुणवती कन्या थी। उसका भाई नमुची युवराज था। भाई को युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उसे द्वारवती लेकर आये और उसके साथ विवाह कर पटरानी का पद प्रदान किया। सुसीमा भी द्वारिका नाश का वृतान्त सुनकर अरिष्टनेमि भगवान के चरणों में दीक्षित हो गई। सभी के साथ इसने भी प्रवर्तिनी यक्षिणी से ग्यारह अंग की शिक्षा प्राप्त की, तप संयम की आराधना कर ये भी निर्वाण को प्राप्त हुई।105
2.3.57 जाम्बवती
जाम्बवती जंबूद्वीप के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी पर स्थित "जाम्बव" नामके नगर के राजा जमवन्त की पत्नी जंबूषणा की सुपुत्री थी। एवं शांबकुमार की माता थी। द्वारिका दहन के वृत्तान्त को सुनकर ये भी प्रतिबुद्ध हुईं।
102. (क) अन्तकृ. 5/2 (ख) त्रि.श.पु.च. 8/11 103. (क) अन्तकृ. 5/3 (ख) त्रि.श.पु.च. 8/11 104. (क) अन्तकृ. 5/4 (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 651 105. (क) अन्तकृ. 5/5 (ख) प्राप्रोने. 2, पृ. 844
120
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org