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________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ तप करती हुई वह अशुभ कर्मों की निर्जरा करने लगी। एकबार नगर के बाहर उद्यान में गुरूणी की आज्ञा का उल्लंघन करके बेले-बेले की तपस्या के साथ सूर्य की आतापना लेने लगी, (साध्वी-चर्या में इस प्रकार का तप निषिद्ध है) वहाँ देवदत्ता गणिका पाँच पुरूषों के साथ सांसारिक सुख का आनन्द अनुभव कर रही थी, यह देखकर अतृप्तकामी सुकुमालिका को भी इसी प्रकार भोग भोगने की अभिलाषा पैदा हुई, उसने अपनी उग्र संयम व तप की साधना को दांव पर लगाते हुए आगामी भव में इसी प्रकार पाँच पुरूषों के साथ भोग भोगने का निदान किया और अर्द्धमास की संलेखना के साथ देहोत्सर्ग किया। यही जीव पूर्वकृत निदान के फलस्वरूप पाञ्चाल देश के कांपिल्यपुर के राजा द्रुपद की चुलनी रानी की कुक्षि से पुत्री रूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम 'द्रौपदी' रखा गया । यौवनवय में प्रवेश करने पर अपूर्व सौन्दर्य-निधि द्रौपदी युधिष्ठिर आदि पाँच पांडुपुत्रों की पत्नी बनी। राजमहलों की समृद्धि में रहने की आदि होती हुई भी यह तेरह वर्षों तक पांडवों के साथ वन-वन भ्रमण करती रही । धातकीखंड द्वीप में राजा पद्मनाभ द्वारा अपहृत की जाने पर इसने चतुराई से राजा को समझाकर छः महीने आचाम्लव्रत के साथ अपने शील की सुरक्षा की। जब द्वारिका दाह, यदुवंश का नाश और श्रीकृष्ण का निधन सुना तो पाँचों पांडवों के साथ द्रौपदी ने भी आर्या सुव्रता के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। आर्या सुव्रता से ग्यारह अंगों का गंभीर अध्ययन किया और उत्कृष्ट तप-जप की साधना कर ये पाँचवे देवलोक में उत्पन्न हुई। महाभारत में द्रौपदी के अंतिम जीवन का प्रसंग अन्य रूप में चित्रित है, वह पाँचों पांडवों 'साथ तीर्थयात्रा करती हिमाचल की तलहटी पर पहुंची, उनके साथ एक कुत्ता भी था पर्वतारोहण करते हुए द्रौपदी, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ने क्रमशः देह का त्याग किया। 100 2.3.52 पद्मावती अरिष्टपुरनरेश हिरण्याभ की पुत्री पद्मावती वासुदेव श्रीकृष्ण की आठ अग्रमहिषियों में से एक थी। इसे प्राप्त करने के लिये स्वयंवर में कृष्ण को अनेक राजाओं से युद्ध करना पड़ा। श्रीकृष्ण के जीवन में पद्मावती का महत्वपूर्ण स्थान था, वह श्रीकृष्ण के लिये श्वासोच्छ्वास के समान प्रिय और उदुम्बर पुष्प के समान दुर्लभ थी। प्रभु अरिष्टनेमि से द्वारिका का विनाश एवं श्रीकृष्ण की मृत्यु का हृदय विदारक वर्णन सुनकर विरक्त हो गई और दीक्षा ग्रहण कर ली। पद्मावती आर्या ने गुरूणी यक्षिणी के समीप ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा उपवास से लेकर मासखमण तक की विविध तपस्याएं की। बीस वर्ष तक चारित्र का पालन कर अंत में एक मास की संलेखना करके शुद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गई। अन्तकृद्दशांगसूत्र में पद्मावती का विस्तार से वर्णन हुआ है। श्रीकृष्ण की आठ पट्टरानियों में उसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। 10 2.3.53 गौरी वासुदेव श्रीकृष्ण की दूसरी प्रमुख रानी 'गौरी' थी। वह वीतशोका नगरी के राजा मेरूचन्द्र की चन्द्रमती रानी 99. (क) ज्ञातासूत्र 1/16 (ख) त्रि. श. पु. च. 8 /12/92 (ग) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 390 100. चक्रवर्ती राजगोपालचारी, महाभारत कथा पृ. 474-75 101. (क) अन्तकृ: 5/1 (ख) त्रि. श. पु. च. 8 / 11 (ग) प्राप्रोने 1 पृ. 820 Jain Education International 119 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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