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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्राप्ति के पश्चात् अरिष्टनेमि के मार्ग का अनुकरण कर प्रेम का उदात्त रूप उपस्थित करती है। इसकी रंगीन कल्पनाओं का चित्रण अनेक कवियों ने अपनी लेखनी द्वारा किया, एवं उसकी भक्ति व स्नेहोत्सर्ग को भक्तिमती मीरा से भी बढ़कर आंका है। जैन आगमों में राजीमती को एक चरित्रवाली, विदुषी महिला एवं परम् साधिका के रूप में चित्रित किया हैं रथनेमी को आत्मसाधना में पुनः स्थिर कर और उसे कर्त्तव्य बोध का सुंदर पाठ पढ़ाने वाली श्रमणी राजीमती का जीवन युगों-युगों तक विश्व के लिये आदर्श प्रस्तुत करता रहेगा। 2.3.49 कात्यायनी अरिष्टनेमि की प्रमुखा साध्वियों में यक्षी व राजीमती के साथ कात्यायनी नाम की साध्वी का उल्लेख पुराणों में आया है। 2.3.50 शिवादेवी शिवादेवी बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि की सौभाग्यशालिनी माता थी। एवं समुद्रविजय की धर्मशीला महारानी थी। जब अरिष्टनेमि कुमार उग्रसेन राजा की सर्वगुणसम्पन्न कन्या राजीमती से विवाह न कर लौट गए थे और दीक्षा अंगीकार कर केवलज्ञान प्राप्त किया, तब माता शिवादेवी भी भगवान अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हो गई थी।” आयुष्य पूर्ण कर वह चौथे माहेन्द्र देवलोक में देव बनी। शिवादेवी के पवित्र-चरित्र तथा नेमनाथ भगवान के साथ हुए उनके संवाद को कवियों ने अपने काव्य में उतारा है।98 2.3.51 द्रौपदी जैन परम्परा में महाभारतकालीन प्रसिद्धि प्राप्त द्रौपदी का नाम साहसी, करूणाशील एवं पाँच पति होते हुए भी महान सती सन्नारी के रूप में आदर के साथ लिया जाता है। पूर्वभव में द्रौपदी का जीव चम्पानगरी में सोम ब्राह्मण की पत्नी नागश्री के रूप में था। एकबार मासोपवासी अनगार धर्मरूचि को उसने कड़वा तूम्बा भिक्षा में बहरा दिया, करूणामूर्ति धर्मरूचि ने कीड़ियों की महान हिंसा से बचने के लिये उस जहरीले साग को समता भाव से उदरस्थ कर प्राण-त्याग दिये। नगर में इस बात की चर्चा फैलने से पति सोम ने नागश्री को घर से निकाल दिया। गांव वाले भी उसे तिरस्कार और घृणा की दृष्टि से देखने लगे। नागश्री दीन-हीन, गरीब भिखारियों की तरह जीवन-यापन करती अनेक व्याधियों से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हुई। वहाँ से अनेक क्षुद्र योनियों में परिभ्रमण कर चम्पानगरी के जिनदत्त सार्थवाह की भार्या भद्रा की कुक्षि से पुत्री के रूप में जन्मी। अति कोमल शरीर होने से माता-पिता ने उसका नाम 'सुकुमालिका' रखा। किंतु पूर्वभव के अशुभ कर्म-बंधन के कारण शरीर से अत्यन्त दुर्गन्ध व ताप आने के कारण कोई भी पुरूष उसके साथ शादी करने को तैयार नहीं हुआ, अंततः उसने आत्मकल्याण का पथ 'संयम' ग्रहण कर लिया। गोपालिका आर्या की आज्ञा में रहकर कठोर 95. (क) हरिवंशपुराण, सर्ग 57 (ख) उत्तरा. नेमि. वृत्ति, पृ. 188 96. यक्षी राजीमती कात्यायन्यन्याश्चाखिलार्यिका:-उत्तरपुराण 71/186 97. (क) समवायांग पृ. 231 (ख) डा. हीराबाई बोरदिया, जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ, पृ. 22 98. जै. सा. का बृ. इ. भाग 7 पृ. 222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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