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________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ 2.3.48 राजीमती बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि की नवभवों की सहधर्मिणी राजीमती प्रेम की साक्षात् मूर्ति और गंगा सी निर्मल व पवित्र सन्नारी थी। वह सर्वलक्षणों से संपन्न एवं गुणवती थी। जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की महारानी धारणी की अंगजात एवं सत्यभामा की वह लघु बहिन थी । अरिष्टनेमिकुमार देवोपम बारात सजाकर महाराज उग्रसेन के यहां राजीमतीको ब्याहने आये । साक्षात् कामदेव के समान त्रिभुवन मोहक नेमिकुमार को देखकर राजीमती अपने भाग्य की सराहना करने लगी, किंतु क्षण मात्र में ही उसकी सारी आशाएं धराशायी हो गई; करूणामूर्ति अरिष्टनेमि हजारों पशुओं को जीवनदान देकर पुनः लौट रहे थे । राजीमती अपने प्राणेश्वर नेमिकुमार के लौट जाने और उनके प्रव्रजित होने के निश्चय को सुनकर पूर्वजन्मों के मोह के कारण मूच्छित होकर गिर पड़ी। मूर्च्छा टूटने पर वह हृदयद्रावी करूण क्रन्दन करने लगी। माता-पिता व सखियों ने किसी अन्य सर्वगुणसम्पन्न रूपवान यादवकुमार को पतिरूप में चुनने की सलाह दी, किंतु एकनिष्ठ पतिव्रत धर्म की प्रेमी राजुल ने दृढ़ता पूर्वक इस प्रस्ताव का विरोध किया तथा स्वयं भी प्रव्रज्या धारण कर पति के पथ का अनुसरण करने का निश्चय किया। मकुमार के तोरण से लौट जाने पर उनके छोटे भाई रथनेमि ने राजीमती को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की, किंतु राजीमती ने चतुराई और युक्तिपूर्ण तरीके से रथनेमि को इस प्रकार समझाया कि वह भी संयम लेने को समुद्यत हो उठा। जब नेमीनाथ भगवान को केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुई, उस समय अनेक मुमुक्षु आत्माओं ने प्रभु-चरणों में दीक्षा ग्रहण की, प्रभु ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। यह श्रवणकर राजीमती ने भी अनेक कन्याओं के साथ दीक्षा ग्रहण की, रथनेमी भी प्रव्रजित हो गये थे। एक बार राजीमती भगवान के दर्शन हेतु अन्य साध्वियों के साथ रैवतगिरि की ओर जा रही थी। रास्ते में घनघोर वर्षा के कारण एक गुफा अपने आर्द्र वस्त्रों को सुखाने लगी। उसी गुफा में मुनि रथनेमि ध्यान-साधना कर रहे थे। राजीमती के अपूर्व सौन्दर्य को देखकर ध्यानस्थ रथनेमि का मन पुनः विचलित हो गया, उसने राजीमती के समक्ष कामेच्छा पूर्ति का आतुर निवेदन किया तो राजीमती ने निर्भीक प्रताड़ना करते हुए सिंहगर्जना की कि “हे अपयशकामी ! धिक्कार तुम्हें, जो तुम त्यक्त विषयों को पुनः ग्रहण करना चाहते हो । श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुए तुम्हें क्या इस प्रकार का आचार शोभा देता है? सयंम पतित जीवन की अपेक्षा तो तुम्हारा मरण ही श्रेष्ठ है। हे अस्थिर चित्त वाले ! संयम में स्थित बनो । " । राजीमती की हितकारी ललकार और फटकार रथनेमि के मदोन्मत काम-रूप हस्ति के लिए अंकुश का काम कर गई। वह निर्वाण का पथिक बन गया । राजीमती ने भी तप-संयम की साधना करते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति की और तीर्थंकर अरिष्टनेमि के पूर्व ही निर्वाण को प्राप्त हो गई। दिगम्बर-ग्रंथों में राजीमती को गणिनी आर्यिका के रूप में उल्लिखित किया है । कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी आदि गणिनी राजीमती के पास दीक्षा ग्रहण करती हैं। 94 अनुदान : राजीमती का जीवन संपूर्ण विश्व की नारी समाज के लिये प्रेरणादायी है। वह एक बार जिसे अपना उपास्य मान लेती है उससे शारीरिक संबंध न होने पर भी अंत तक उसके साथ प्रेम का निर्वाह करती है। कैवल्य 93. (क) उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 22, (ख) त्रि. श. पु. च. पर्व 8 सर्ग 9 94. कुंती सुभद्रा द्रौपद्यश्च दीत्रां ता. परा ययुः । निकटे राजमत्याख्य गणिन्या गुणभूषणाः । -उत्तरपुराण, पर्व 72, गा. 264 Jain Education International 117 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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