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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साहित्य में वे ही ऐसी श्रमणी - प्रमुखा हैं, जिनके पास दोसौ सोलह वृद्धा कुमारिकाओं ने दीक्षा ली और शरीरशोभा में रूचि लेने के कारण विराधक बनी। 19
2.3.68 श्री वामादेवी
तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी की माता वामादेवी वाणारसी के महाराज अश्वसेन की महारानी थीं। प्रभु पार्श्वनाथ को केवलज्ञान प्रगट होने पर संघ स्थापना हुई, उसमें प्रभु की वाणी से प्रतिबोध प्राप्त कर महाराजा अश्वसेन के साथ महारानी वामादेवी ने आत्मकल्याण के लिए चारित्र ग्रहण किया तथा आयुष्य पूर्ण कर माहेन्द्र नाम के चौथे देवलोक में देव बनीं 1 1 20
2.3.69 श्री प्रभावती
प्रभावती कुशस्थल नगर के राजा नरवर्मा के पुत्र प्रसेनजित की अनुपम रूप- लावण्य व गुणयुक्त कन्या थी, उसने पार्श्वकुमार के गुणों की महिमा श्रवण कर मन से उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था। राजा प्रसेनजित अपनी पुत्री को लेकर वाराणसी आये और राजा अश्वसेन से पार्श्वकुमार के साथ प्रभावती के विवाह की प्रार्थना की। यद्यपि पार्श्वकुमार सांसारिक बंधन से मुक्त रहना चाहते थे, किंतु पिता के आग्रह से उन्होंने प्रभावती के साथ विवाह किया। तीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहकर पार्श्वकुमार सहज विरक्त हो गये। जब उन्हें केवलज्ञान - केवलदर्शन प्रगट हो गया, तब देवी प्रभावती भी प्रभु पार्श्वनाथ के श्रमणी संघ में सम्मिलित होकर आराधक बनीं। 121
2.3.70 काली, राजी, रजनी, विद्युत, मेघा
ये पाँचों आमलकल्पा नगरी में अपने 2 नाम के अनुरूप नाम वाले गाथापतियों की कन्याएं थीं। जैसे काली के पिता काल और माता कालश्री, इसी प्रकार सबका समझना । वृद्धावस्था आने तक भी ये अविवाहित रहीं, भगवान् पार्श्वनाथ का उपदेश सुनकर प्रव्रजित हो गईं, और पुष्पचूला की शिष्याएँ बनी। कुछ समय पश्चात् ये शरीर- शोभा में विशेष रूचि लेने लगीं। गुरूणी के मना करने पर ये उनसे स्वतंत्र रहकर जीवन व्यतीत करने लगीं। अंत में चमरेन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनीं। ये भविष्य में महाविदेह से मुक्ति प्राप्त करेंगी। 122
2.3.71 शुंभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा, मदना
ये श्रावस्ती नगरी की अपने नामानुरूप गाथापतियों की कन्याएँ थीं। वृद्धावस्था तक विवाह नहीं हुआ, पार्श्वनाथ भगवान् से दीक्षा लेकर पुष्पचूला की शिष्याएँ बनीं। शरीर शोभा की आसक्ति के कारण मृत्यु प्राप्त कर बलीन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनी। भविष्य में महाविदेह से मुक्ति प्राप्त करेंगी। 123
119. ज्ञातासूत्र 2/1-10; पुष्पचूलिका 1-10
120. (क) समवायांग सूत्र 634, गा. 9 (ख) आचार्य हस्तीमलजी ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर पृ. 182
121. (क) त्रि.श.पु.च. पर्व 9 सर्ग 3; (ख) पूर्वोक्त तीन तीर्थंकर पृ. 182
122. ज्ञातासूत्र, श्रुतस्कंध 2, वर्ग 1 अध्ययन 1-5
123. ज्ञाता. 2/2/1-5
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