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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
विचार पक्का बन गया तो अपनी समस्त संपत्ति इसी होस्पीटल को दान स्वरूप देकर पालनपुर में संवत् 1982 में दीक्षा अंगीकार की। आपकी गुरूणी श्री झबकबाई श्री सूरजबाई थीं। आपने बत्तीस ही आगमों का अनुशीलन परिशीलन किया था जो आपके असरकारक अचूक प्रवचनों में झलकता था। आप स्व.-पर हितार्थ की भावना से सदा ही विहार करना पसंद करती थीं, कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात और मुंबई आपकी विहारभूमि रही। आप भद्र प्रकृति की समतावान, निष्कारण उपकारी एवं निर्मल हृदय की थीं। मौन, गुरूआज्ञा और स्वाध्याय में ही तल्लीन रहना आपकी प्रवृत्ति थी। अंत में 51 वर्ष की पूर्ण दीक्षा-पर्याय पालकर सं. 2033 जेठ सुदी 13 को अमदाबाद सारंगपुर के उपाश्रय में समाधिभाव से स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी दीक्षा एवं स्वर्गवास एक ही दिन हुआ-जेठ सुदी 13 सोमवार। आपकी दो शिष्याएँ थीं-श्री प्रभाबाई, स्व. श्री वसुमतीबाई। 'श्री केसरबाई नी संक्षिप्त जीवन झरमर' पुस्तक प्रकाशित है।229
6.4.6 श्री शकरीबाई (सं. 1984-स्वर्गस्थ)
आप मूल ध्रांगध्रा की थीं, वढवाण में आपका ससुराल था। आपको एक पुत्री भी थी। वैधव्य के पश्चात् पू. नाथीबाई के पास शाहपुर में वैशाख कृ. 5 के दिन दीक्षा अंगीकार की। आप बड़ी ही स्वाध्याय प्रेमी थीं, सेवाभाविनी थी। अंत समय में सात वर्ष तक हड्डी के कैंसर की बीमारी को समताभाव से भोगकर कार्तिक कृ. 12 को शाहपुर में समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं।230
6.4.7 श्री ताराबाई (सं. 1986-2036)
आपका अवतरण सं. 1956 को पालनपुर में माता मैनाबाई व पिता भाईचंदभाई के यहां हुआ। तरूण अवस्था में आपका विवाह हुआ, किंतु 11 महीने में ही वैधव्य का दुःख आ पडा। सं. 1986 में पूज्य लक्ष्मीचंदजी म. सा. के सदुपदेश से प्रेरित होकर वैशाख कृ. 5 को 30 वर्ष की वय में दीक्षा अंगीकार कर श्री सूरजबाई की शिष्या बनीं। आप प्रारंभ से ही ज्ञानपिपासु थीं, व्याख्यान हो या स्वाध्याय कभी ऊपर निगाह कर किसीको उस काल में देखती भी नहीं थीं। 50 वर्ष की दीक्षा-पर्याय में आपने अविरत अध्ययन किया, जीवन पर्यन्त विद्यार्थी बनी रहीं, आगम संबंधी कहीं से भी कोई प्रश्न पूछता तो उसे तुरंत समाधान प्राप्त होता था। दिन में कभी आराम नहीं करती, मन की निश्चलता इतनी थी, कि एकबार जहां बैठ गईं, वहाँ से बिना कारण उठती नहीं थीं। आठ उपवास में भी प्रवचन की धारा बंद नहीं की। आप सरलता, सौम्यता वाणी-वर्तन की एकता और क्रियानिष्ठा की खान थीं। श्री वीरेन्द्रमुनिजी पर महासतीजी का महान उपकार था। अंत समय में देह से निस्पृह होकर बहिर्भाव को भूलकर आत्मस्थ रहीं, बीमारी की अवस्था में न डॉक्टर को बुलाया न कोई दवा ली। सं. 2036 चैत्र शु. 10 को नवरंगपुरा अमदाबाद में आप समाधिमरण को प्राप्त हुईं। आपकी कुल 18 शिष्याएँ थीं।3। आपके उववाईसूत्र पर आधारित व्याख्यान 'आध्यात्मिक प्रवचन' के नाम से प्रकाशित हैं।232
229. संपादक-अंबालाल छोटालाल पटेल, प्रकाशक-दरियापुरी आठकोटि स्था. जैनसंघ, सारंगपुर, अमदाबाद, ई. 1978 230. वात्सल्यता नी वीरड़ी, पृ. 5 231. तारक नां तेज किरणो, लेखिका-प्रीति शाह, प्रकाशक-श्रीमती पद्माबेन धनकुमार, 5 जैननगर, पालड़ी, अमदाबाद, ई. 1981 232. द. तारा सुधारस वाणी, माटुंगा, मुंबई वि. सं. 2015
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