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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्रमणी-वर्ग ने भी इस कार्य में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 20वीं सदी में क्रियोद्धारिका के रूप में उद्योतश्री जी का नाम गौरव के साथ लिया जाता है।
5.1.2.2 प्रवर्तिनी लक्ष्मीश्रीजी (संवत् 1924) ____ आप फलोदी के श्रेष्ठी जीतमलजी गोलेछा की सुपुत्री एवं सरदारमलजी झाबक की धर्मपत्नी थीं। बाल्यवय में पति के निधन से वैराग्यभाव जागृत हुआ, एवं श्री सुखसागरजी के सदुपदेश से संसार का त्याग कर संवत् 1924 मार्गशीर्ष कृष्णा 10 को दीक्षा ग्रहण की। इन्होंने अनेक महिलाओं को दीक्षा दी थी, उसमें संवत् 1931 में पुण्यश्रीजी को भी दीक्षा देने का उल्लेख प्राप्त होता है, इनके द्वारा अन्य कितनी दीक्षाएँ दी गईं, इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है, किंतु 'पुण्यमंडल' और 'शिवमंडल' के नाम से इनकी शिष्याओं की दो शाखाएँ वर्तमान में प्रसिद्ध है। 70
5.1.2.3 प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी (संवत् 1931-76) :
जैसलमेर के संपन्न परिवार में श्री जेतमलजी व कुंदनदेवी के यहाँ संवत् 1915 में इनका जन्म हुआ। इनकी इच्छा के विरूद्ध फलौदी निवासी दौलतसिंहजी झाबक के साथ विवाह कर दिया गया, किंतु 18 दिन में ही पति की मृत्यु से 'भलो थयो भांगी जंजाल' की तरह ये संसारी जाल से मुक्त होकर दीक्षा के महापथ पर आरूढ़ हो गईं। गणनायक श्री सुखसागरजी के सान्निध्य में संवत् 1931 वैशाख शुक्ला 11 के दिन दीक्षा अंगीकार की। इनके प्रसन्न-गंभीर आकर्षक व्यक्तित्व, गहन आत्मज्ञान एवं मधुरवाणी से खरतरगच्छ में तेजी से श्रमणियों की अभिवृद्धि हुई। संवत् 1931 से 1976 तक 45 वर्षों के मध्य 116 दीक्षाएँ विभिन्न स्थानों पर हुईं और वे भी विशाल समारोह पूर्वक, इनमें 49 तो इनकी स्वयं की शिष्याएँ बनीं, शेष प्रशिष्याएँ थीं। यही नहीं, अनेक पुरूष भी इनकी प्रेरणा से प्रतिबोधित होकर संयम लेने को तत्पर हुए। शासन प्रभावना में इनका नाम सुवर्णाक्षरों में अंकित है। अनेक संघ-यात्राएँ अनेक जिनालयों का पुनर्निमाण व नवनिर्माण इनकी प्रेरणा व नेश्राय में हुआ, हजारों लोग व्यसन मुक्त व अभक्ष्य त्यागी बने। इस प्रकार श्री पुण्यश्रीजी का पुण्य प्रभाव बहुजनहिताय रहा। संवत् 1972 से 76 तक ये जयपुर में स्थिरवासिनी रहीं, संवत् 1976 फाल्गुन शुक्ला 10 को इनके स्वर्गवास के पश्चात् जयपुर मोहनवाड़ी में इनकी पुण्य स्मृति में छतरी बनाकर 'चरण पादुका' प्रस्थापित की गई।17। 'पण्य जीवन ज्योति' नाम से इनका जीवन चरित्र भी जयपुर से प्रकाशित हुआ है। प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्रीजी के शिष्या-परिवार का परिचय तालिका में देखें।
5.1.2.4 प्रवर्तिनी शिवश्रीजी 'सिंहश्री जी' (संवत् 1932-65)
अपने दोनों नामों को सार्थकता प्रदान करने वाली साध्वी शिवश्रीजी का जन्म 1912 में फलौदी निवासी पिता लालचन्द्रजी व माता अमोलकदेवी के यहाँ हुआ। संसारी नाम 'शेरू' था, शेर के समान ही ये निर्भीक व साहसी थीं। बालवय में लग्न और पश्चात् विधवा हो जाने पर संसार के दु:खों का सामना करते हुए विरक्ति के भाव जागृत हुए, बीस वर्ष की उम्र में संवत् 1932 अक्षय-तृतीया के शुभ दिन श्री लक्ष्मीश्रीजी के चरणों में संयम
170. वही, पृ. 799 171. वही, पृ. 799
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