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________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.151 श्री जयवंत श्री जी ( संवत् 1981 ) संवत् 1981 में साध्वी श्री जयवन्तश्रीजी की पादुका श्री मदनचंद जी किशनचंद जी द्वारा करवाई गई । 166 5.1.152 श्री उमेदांश्री जी (संवत् 1988 ) श्री उमेदश्रीजी के स्वर्गवास पर संवत् 1988 में उनकी चरण पादुका प्रतिष्ठित की गई । 167 5.1.153 अन्य श्रमणी - पादुकाएँ (संवत् 1970-90 ) संवत् 1970 में साध्वी प्रेमश्रीजी, संवत् 1974 में गुरणीजी विवेकश्री की, संवत् 1988 में साध्वी उमेदश्रीजी की तथा संवत् 1975 में चमन जी, अभुजी, कस्तूरांजी की चरण पादुका प्रतिष्ठित हुई। इसी प्रकार बीकानेर श्रीसंघ ने संवत् 1990 में पू. श्री सुखसागर जी महाराज की संप्रदाय की साध्वी प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्रीजी की शिष्या प्रवर्तिनी श्री सुवर्णश्रीजी के चरणों की स्थापना करवाई । 168 5.1.2 समकालीन खरतरगच्छ की श्रमणियाँ बीसवीं तथा 21वीं सदी में भी खरतरगच्छ की श्रमणियों का इतिहास अत्यन्त उज्जवल, गरिमामयी रहा है। अनेकों श्रमणियाँ आजीवन ब्रह्मचारिणी, विशिष्ट व्याख्यानदात्री अद्भुत तपस्विनी विदुषी एवं प्रचारिका के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुईं। वर्तमान में इस समुदाय के प्रमुख नायक गणाधीश श्री कैलाशसागरसूरिजी की आज्ञा में 237 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं, जिनमें एक महत्तरा साध्वी श्री मनोहर श्रीजी तथा दो प्रवर्तिनी साध्वियाँ - श्री विद्वानश्रीजी तथा श्री तिलक श्रीजी हैं। समकालीन खरतरगच्छ के विशाल श्रमणी - समुदाय में हमें कुछ ही श्रमणियों का परिचय प्राप्त हुआ, वह यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 5.1.2.1 श्री उद्योतश्रीजी ( संवत् 1918 - 40 ) आप फलौदी निवासी रतनचंदजी गोलेछा की धर्मपत्नी थी। गोलेछाजी की मृत्यु के पश्चात् संसार से विरक्त होकर संवत् 1918 माघ शुक्ला 5 में अपने तीन पुत्र, पाँच पौत्र व तीन पौत्रियों की मोहमाया को छोड़कर श्री रूपश्रीजी राजश्रीजी के पास संयम ग्रहण किया। आप कठोर क्रिया की पक्षधर थीं। फलौदी में श्री सुखसागरजी महाराज की उत्कृष्ट क्रिया- पात्रता को देखकर विरोधियों के वाग्बाणों की भी परवाह न कर आपने उनके साथ क्रियोद्धार का कार्य किया, एवं जीवन पर्यन्त उनकी आज्ञानुयायिनी बनकर रहीं । आपकी प्रमुख चार शिष्याएँ थीं- धनश्री, लक्ष्मीश्री, मगनश्री और शिवश्री । इनमें लक्ष्मीश्रीजी और शिवश्रीजी बहुश्रुती एवं प्रभावशालिनी साध्वी हुईं। अत: उद्योतश्रीजी की परंपरा उक्त दो साध्वियों के नाम से अद्यतन प्रवहमान है। 169 शिथिलाचार का परिहार कर विशुद्ध श्रमणाचार का परिपालन करने कराने में जिस प्रकार आचार्यों एवं मुनियों ने कार्य किया उसी प्रकार 166. वही. ले. सं. 2122 2125 2126 2127 2128 167. वही. ले. सं. 2123 168. वही. ले. सं. 2124 169. जिन शासननां श्रमणीरत्नो, पृ. 798 Jain Education International 295 For Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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