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________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.10.9 श्री दमयंती श्रीजी ( संवत् 1987-2045 ) श्रमणी जीवन की साधना में तप एक महत्वपूर्ण साधना है। दमयंतीजी एक तपसाधिका के रूप में जिनशासन में एक विशिष्ट श्रमणी हुई हैं, इन्होंने अपने संयमी जीवन में 9 वर्षीतप किये जिसमें अट्टम के पारणे में अट्टम, छट्ठ के पारणे में छट्ठ, उपवास के पारणे में उपवास तथा प्रत्येक पारणा एकासण से इस प्रकार की कठिन तप साधना की। नौ चौमासी तप बेले बेले से, एक चौमासी अट्ठम से, दो छः मासी, दो मासी, डेढ़ मासी, अढ़ीमासी, 229 छट्ठ, 12 अट्ठम, वर्गतप, भद्रप्रतिमा 2 बार 1024 सहस्रकूट का तप, श्रेणितप, सिद्धितप, बीस स्थानक, 16 अठाइयां, 158 प्रकृति के उपवास, पार्श्वनाथ के 108 अट्ठम, चत्तारि अट्ठ दोय तप, तेरह काठिये के 13 अट्टम, 16 उपवास, 15 उपवास, वर्धमान तप की 44 ओली, इसमें अंतिम दो ओली एक दिन उपवास एक दिन आयंबिल से की। नवपद की ओलियाँ जीवन पर्यन्त की, उसके पारणे में अट्ठम व उसका पारणा आयम्बिल से करते थे, ज्ञानपंचमी, पोषदशमी, एकादशी, पूर्णिमा दूज, अष्टमी इस प्रकार आजीवन तप तपा, तप के साथ इनका संयम भी उत्कृष्ट था। ज्ञानपिपासा, तपोनिष्ठा और अप्रमत्तदशा की साधिका दमयंती श्री चूड़ा निवासी जेसिंगभाई और उनकी धर्मपत्नी मीठीबाई की एकमात्र कन्या थी। पूर्व संस्कारों से प्रेरित होकर 17 वर्ष की वय में भोंयणी में संवत् 1987 माघ शुक्ला 11 दीक्षा लेकर ये मंगलश्रीजी की शिष्या बनीं। 59 वर्ष तक संयम व तप द्वारा आत्मोत्थान करती हुई संवत् 2045 में आदीश्वर दादा की शीतल छाया में समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण किया। 380 5.3.10.10 श्री मंजुलाश्रीजी ( संवत् 1987-2033 ) मंजुलाश्रीजी का जन्म संवत् 1974 को खंभात के श्री उजमशीभाई के यहाँ हुआ। शिशुवय में ही संवत् 1987 में ये अपनी बहिन विमलाश्रीजी के साथ खंभात में दीक्षित हुईं। अप्रमत्त भाव से रत्नत्रय की आराधना करते हुए इन्होंने वर्षीतप छमासी, चौमासी, 16, 9, 8 उपवास, 20 स्थानक, नवपद तथा वर्धमान ओली आदि तप किया। इनके प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व के कारण शासन के अनेक अवरूद्ध कार्य पूर्ण हुए। पद्मयशाश्री, पुष्पयशाश्री आदि सुयोग्य विशाल शिष्या परिवार को छोड़कर अंत में संवत् 2033 में यह महान साध्वी स्वर्गलोक की ओर प्रयाण कर गईं। 391 5.3.10.11 श्री प्रियंवदाश्रीजी ( संवत् 1991 से वर्तमान) सौराष्ट्र की जेतपुर नगरी में संवत् 1977 को जीवणभाई धर्मपत्नी हीराबहन की कुक्षि से चतुर्थ कन्या के रूप में प्रियंवदाश्रीजी ने जन्म ग्रहण किया। 12 वर्ष की लघुवय में इन्होंने पातीताणा की 99 यात्रा कर अपने अदम्य साहस एवं भक्ति का परिचय दिया। स्वजनों से दीक्षा की अनुमति नहीं मिलने पर ये संवत् 1991 आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को गुप्त वेश पहनकर दीक्षित हो गईं। निर्मलाश्रीजी के सान्निध्य में रहकर प्रतिदिन 50-60 गाथा कंठस्थ कर इन्होंने जैन आगम ग्रंथों का व्यापक अध्ययन किया। तप में नवपद ओली, बीस स्थानक तप अठाई, मोटा योग आदि एवं विविध तप-जप की साधना से आत्म-शक्ति की वृद्धि की। कंठ की मधुरता के कारण 380. वही, पृ. 607-8 381. वही, पृ. 613 Jain Education International 419 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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