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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
में प्रख्यात हो गईं। कच्छ, झालावाड़, गुजरात आदि प्रदेशों में 42 वर्ष विचरण कर इन्होंने जन-जीवन में धार्मिक भावनाओं का संचार किया । ध्रांगध्रा में इनके सर्वाधिक चातुर्मास हुए, वहां धर्मबीज का वपन करने वाली ये सर्वप्रथम साध्वी थीं। जिनशासन को श्री निर्मलाश्रीजी, कुशल श्रीजी, दिव्याश्रीजी, कवीन्द्रश्रीजी, आदि लगभग 25 विदुषी शिष्या - प्रशिष्याएँ समर्पित कर संवत् 2010 ध्रांगध्रा में कालधर्म को प्राप्त हुईं। 176
5.3.10.6 प्रवर्तिनी श्री कुसुमश्रीजी (1980-2045 )
जन्म दीक्षा और स्वर्गवास तीनों का सौभाग्य कपड़वंज की भूमि को प्रदान कराने वाली श्री कुसुमश्रीजी लग्न के छः मास पश्चात् ही वैधव्य को प्राप्त हो गयीं। अतः इन्होंने अपना जीवनरथ वैराग्य पंथ की ओर मोड़ने का निर्णय लिया। पिता गिरधरलाल व माता समरथवहन से आज्ञा प्राप्त कर इन्होंने संवत् 1980 को श्री कंचनश्रीजी के सान्निध्य में दीक्षा अंगीकार की । स्वाध्याय, तप, तीर्थयात्रा करते हुए लगभग 50 कन्याओं को इनके द्वारा संयम जीवन की शिक्षा, दीक्षा प्राप्त हुई। संवत् 2045 को 86 वर्ष की वय में यह महान आत्मा जिस धरा पर प्रगट हुई वहीं विलीन हो गई। 377
5.3.10.7 श्री सुनन्दाश्रीजी ( संवत् 1983 - स्वर्गवास )
कपड़वंज गाँव में संवत् 1967 को श्री शंकरलाल पारीख और चंचलबहन के घर श्री सुनन्दाश्रीजी का जन्म हुआ। वैराग्यवासित हृदय से संवत् 1983 वैशाख शुक्ला पंचमी के दिन कपड़वंज में ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। श्री कंचन श्रीजी की प्रेरणा और आशीर्वाद से गहन शास्त्रीय ज्ञान एवं शुद्ध संयम की शिक्षा प्राप्त की। स्वयं की सेवाभाविनी विदुषी 8 शिष्याएँ बनीं, उन्हें ज्ञान व आचार की शिक्षा प्रदान कराने की तीव्र अभिलाषा रखने के कारण ये अपने संघ में 'उपाध्याय' के नाम से पहचानी जाती थीं। 66 वर्ष की दीक्षा पर्याय में 8, 16, 15, 30 उपवास, चत्तारि - अट्ठ-दस दोय, सिद्धितप, बीस स्थानक वर्धमान ओली 27, पंचमी, अष्टमी, चौदस आदि तपोमय साधना से अपने जीवन को आलोकित करती हुई वर्तमान में 200 साध्वी- समुदाय के नायकत्व के रूप में विचरण कर रही हैं। 378
5.3.10.8 श्री कमलाश्रीजी ( संवत् 1985 से वर्तमान )
शांत स्वभावी श्री कमलाश्रीजी डभोई के धर्मश्रद्धालु शेठ श्री खुशालचंदजी व उनकी पत्नी जेकोरबहन की सुपुत्री हैं। 12 वर्ष की उम्र में विवाह और छः मास में ही वैधव्य ने कमला श्रीजी की दुःखद मनः स्थिति को वैराग्य मार्ग की ओर मोड़ दिया। संवत् 1985 मृगशिर शुक्ला द्वितीया के दिन ये कंचन श्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षित हुईं। ज्ञान और भक्ति से इनका व्यक्तित्त्व शोभित होने लगा, स्थान-स्थान पर इनके सदुपदेश से पाठशाला, आयंबिलशाला, देरासर आदि सक्रिय हुए, मध्यमवर्गीय श्रावक आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बने। इनकी विदुषी शिष्याएँ - अरूणप्रभाश्रीजी, स्नेहलता श्रीजी, कीर्तिलताश्रीजी आदि हैं। 379
376. वही, पृ. 596-97
377. वही, पृ. 601-3
378. वही, पृ. 603-4
379. वही, पृ. 605-6
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