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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पार्वतीजी महाराज जब स्यालकोट पधारी, तो उनके सत्संग एवं प्रवचनों का राजमती पर गहरा प्रभाव पड़ा, दोनों पक्षों को समझा-बुझाकर दृढ़मना राजमती ने पति की उपस्थिति में ही संसारी विषय-भोगों की विष- बेल को काटकर फेंक दिया, और उसी वर्ष वैशाख सुदी 13 सोमवार को अमृतसर में आर्हती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् आप स्वाध्याय, ध्यान, मौन, जप आदि में तल्लीन रहने लगीं। घंटों तक समाधि लगाकर ध्यान, जप आदि करती रहतीं। आप परम तितिक्षु थीं, कड़कड़ाती पोष मास की सर्दी एवं भयंकर प्राणलेवा गर्मी को भी सहज ढंग से सहन कर लेती थीं। आप एक निस्पृह, एकान्त साधिका थीं। आपका शिष्या समुदाय भी काफी विस्तृत एवं प्रभावशाली रहा है। प्रवर्तिनी महासती पार्वतीजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आपको 'प्रवर्तिनी' के महान् पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आप भी अंतिम समय जालंधर में ही स्थिरवास रहीं। संवत् 2010, कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन समाधि पूर्वक वहीं पर आपने देह त्याग किया। आपकी 7 शिष्याएँ हुईं- श्री हीरादेवीजी, पन्नादेवीजी, चन्दाजी, माणकदेवीजी, रत्नदेवीजी, ईश्वराजी, राधाजी । 121 6.3.2.26 श्री द्रौपदांजी (सं. 1953-92 ) महार्या द्रौपदांजी का जन्म संवत् 1934 को अंबाला में पिता मेलाराजजी अग्रवाल एवं माता जमुनादेवी के यहां हुआ। 11 वर्ष की अल्पायु में अंबाला में ही श्री बंशीलालजी गर्ग के सुपुत्र श्री कृष्णगोपालजी से आपका विवाह हुआ । एकबार अपनी बहन गणेशीदेवीजी के यहां किसी जैन साध्वी को ऐषणीय व निर्दोष आहार ग्रहण करते देखकर जैनधर्म पर अगाध श्रद्धा पैदा हो गई, बड़े कष्ट पति व ससुराल वालों की आज्ञा प्राप्त कर संवत् 1953 फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा के दिन लुधियाना में आचार्य श्री मोतीरामजी महाराज के मुखारविंद से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री भगवानदेवीजी की शिष्या बनीं। दीक्षा के पश्चात् आप ज्ञान एवं तप के संग्रह में जुट गईं, 50-60 श्लोक प्रतिदिन याद कर लेना तो आपकी स्वाभाविक क्रिया थी ही, साथ ही आपकी जीवदया की भावना भी उच्चकोटि की थी, इसी गुण से प्रभावित होकर अमीरखां नामक एक शिकारी ने शिकार खेलना बंद कर दिया। हांसी में डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ के तालाब से मछली पकड़ना और मारना निषिद्ध करवा दिया। जालन्धर छावनी में मुस्लिमों ने बकरीद पर बकरों की कुर्बानी करनी बन्द कर दी और बकरीद को चावल, घी व सेवियों से मनानी प्रारंभ कर दी। आपके उपदेश से एक धनाढ्य नंबरदार ने परिवार सहित मांस न खाने की प्रतिज्ञा की और गांव में भी विवाह आदि में मांस का इस्तेमाल न होने देने का कानून बनाया। एक कसाई ने आपके अहिंसक उपदेश से सर्वदा के लिये कसाई कर्म छोड़ दिया वह अहिंसक तथा सात्विक जीवन जीने लगा। इस प्रकार आपने कइयों के मन-मंदिर में अहिंसा भगवती की प्रतिष्ठापना की। आपकी प्रेरणा से जम्मू दिल्ली, रोहतक, बड़ौत आदि कई स्थानों पर जैन कन्या पाठशालाओं की स्थापना हुई। आपकी प्रवचन शैली तार्किक, तात्त्विक और निराली थी। एक आर्यसमाजी भाई एकबार आपसे शास्त्रार्थ करने आया आपके तर्क के आगे नतमस्तक हो कर वह जैनधर्मानुयायी बन गया। समाज सुधार विषयक आपके प्रवचनों से लोगों के दिल परिवर्तित हो जाते थे। स्यालकोट में आपके हृदयद्रावक उपदेश को सुनकर अनेक लोगों को चमड़े की वस्तुओं के प्रति घृणा पैदा हो गई। विवाह संबंधी कुरीतियों और उन पर होने वाले अपव्यय एवं हानियों पर आप जब प्रवचन सभा में विवेचन करतीं तो अनेकों लोग त्याग प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेते थे। पंजाब में उस 121. साध्वी सरला, साधना पथ की अमर साधिका, पृ. 26 Jain Education International 576 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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