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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.23 श्री भगवानदेवीजी (सं. 1943-62) आपका जन्म माछीवाड़ा (लुधियाना) में श्री नगीनचंद्रजी जैन के यहाँ संवत् 1921 को हुआ। समानां में विवाह के पश्चात् पतिवियोग एवं पुत्रीवियोग से उद्वेलित होकर करोड़ों की सम्पत्ति को ठोकर मारकर आप वि. सं. 1943 ज्येष्ठ शुक्ला 12 को प्रवर्तिनी श्री पार्वतीजी म. के पास रोपड़ में दीक्षित हो गईं। आपने जिनशासन की महती प्रभावना की। आपकी 4 शिष्याएँ हुईं-श्री मथरोजी, श्री पूर्णदेवीजी, श्री द्रौपदांजी, श्री लक्ष्मीजी। संवत् 1962 भाद्रपद अमावस्या को गजरांवाल में आप स्वर्गस्थ हई।119 6.3.2.24 श्री चन्दाजी (सं. 1944-2009) स्थानकवासी समाज की लब्ध प्रतिष्ठ साध्वी-रत्न महासती श्री चन्दाजी म. का जन्म संवत् 1933 में आगरा के राजपूत वंश में पिता श्री खुमानसिंह जी एवं माता श्रीमती हर्षकंवर के यहां हुआ। मात्र नौ वर्ष की आयु में बालिका की उत्कट भावना देखकर माता ने करनाल नगर में महासती पार्वतीजी के चरणों में सदा के लिये इन्हें समर्पित कर दिया। संवत् 1944 फाल्गुन शुक्ला 2 के शुभ दिन प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी के पास इनकी दीक्षा हुई। इनकी स्मरणशक्ति इतनी प्रखर थी कि एक दिन में 50-60 गाथाएं तो चलते-फिरते ही याद कर लेती थी। 12 वर्ष की आयु तक तो इन्होंने सभी आगमों का अध्ययन कर लिया। जैनदर्शन के साथ-साथ वेद, उपनिषद् स्मृतियां, पुराण, कुरान आदि अनेक ग्रंथों का भी गहन अध्ययन किया। इनके प्रवचनों में आर्यसमाजी, सनातन, वैष्णव, मुसलमान सभी कोम के लोग आते और स्थायी प्रभाव लेकर जाते थे। जब आप प्रवचन देतीं तो संत अपना प्रवचन बंद रखते थे। उस युग में रोहतक की आर्यसमान ने 'ॐ' पर आपके तीन प्रवचन रिकार्ड किये। यह आपके व्यक्तित्व और शब्द संप्रेषण शक्ति का अद्भुत प्रभाव था। 'चंद्र-ज्योति' में आपका जीवन व प्रवचन संग्रहित है। सामाजिक कुप्रथाओं के प्रति भी ये संवेदनशील थीं। स्यालकोट में एक हिंसक प्रवृत्ति के भाई श्री बुग्गामलजी के परिवार में नववधु को भैंसे की बलि चढ़ाकर उसके रक्त से रंजित ओढ़नी ओढ़ाने की प्रथा थी, इनके अहिंसात्मक उपदेश से उन्होंने तथा उनके साथ 40 अन्य परिवारों ने इस कुप्रथा का त्याग किया, लुधियाना में वक्षस्थल विवस्त्र कर रोने पीटने की कुप्रथा भी आपने दूर करवाई। इसी प्रकार अन्य भी अनेक लोकोपकारी कार्य किये। फरीदकोट में एवं अन्य भी जैन कन्या पाठशालाएं खोलने की प्रेरणा दी। आपकी चैत्र कृ. 11 सं. 1961 में रचित 'सुमतसुंदरी की ढाल' सं. 1969 में गुजरांवाल में आर्या भागवतीजी द्वारा लिपिकृत सुशीलमुनि आश्रम, शंकररोड नई दिल्ली में मौजुद है। इसके अतिरिक्त रत्नपाल, मंदिरा कमलप्रभा आदि कई चरित्र रचे। आपकी तीन शिष्याएँ थीं- श्री देवकीजी बा. ब्रां. श्री श्रीमतीजी व श्री धनदेवीजी। श्रीमती जी की शिष्या श्रीहाकमदेवीजी (लाहौर) और लज्जावतीजी थीं।120 6.3.2.25 प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी (1048-2010) विदुषी महासती श्री राजमतीजी का जन्म स्यालकोट के प्रसिद्ध जैन परिवार में लाला खुशहालशाह के घर हुआ तथा विवाह जम्मू के सुप्रतिष्ठित समृद्धि सम्पन्न लाला श्री जयदयालजी के साथ हुआ। वि. सं. 1948 में 119. महासती केसर गौरव ग्रंथ, खंड-3, पृ. 371-72 120. श्री महेन्द्रजी म.-चंद्रज्योति (जीवन खण्ड) प्रकाशक-श्री जैन शास्त्रमाला कार्यालय, जैन स्थानक लुधियाना, वि. सं. 2011 575 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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