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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास जो शास्त्र की नीति एवं मर्यादानुसार तप द्वारा कर्म-बंधन का भेदन करता है, वह भिक्षु है।। दिगम्बर ग्रंथ मूलाचार में अनेक स्थलों पर श्रमण के लिये 'भिक्षु' शब्द का प्रयोग किया गया है।32 'भिक्षुणी' शब्द का प्रयोग दिगम्बर ग्रंथों में देखने को नहीं मिलता। जबकि श्वेताम्बर आगमों में भिक्षुणी (भिक्खुणी) के अनेकशः उल्लेख हैं। संस्कृत हिंदी कोश में 'श्रमणी' को 'भिक्षुकी' भी कहा है।133 अभिधान चिन्तामणि कोश में 'श्रमणी' के तीन नामों में एक नाम 'भिक्षुकी' है।।34 1.14.8 संयतिनी (संजतीण) श्रमणियों का एक नाम 'संयतिनी' भी है।35 निशीथ चूर्णि में 'संयतिनी नियम से निर्ग्रन्थी है। 36 पद्मपुराण में 'मदोदरी को "संयता, संयममाश्रितानि" कहा है। निशीथभाष्य में 'संयत' के समान ही 'संयतिनी' के नियम जानना चाहिये ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। 38 । संयत की परिभाषा करते हुए मूलाचार में कहा है -'कषाय रहित होना चारित्र है, इस दृष्टि से जिस समय जीव उपशान्त (व्रत में स्थित तथा कषाय रहित) हो जाता है उसी समय वह 'संयत' (चारित्र युक्त) हो जाता है, तथा कषाय के वशीभूत जीव असंयत हो जाता है। अतः चारित्रादि अनुष्ठान में निष्ठ रहते वाला 'संयत' कहा जाता है। 39 धवला के अनुसार 'सम' अर्थात सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार जो बहिरंग तथा अंतरंग आस्रवों से विरत है, उन्हें 'संयत' कहते हैं। 40 संयत के समान ही 'संयतिनी' का भी स्वरूप है। 1.14.9 व्रतिनी संयतिनी को 'व्रतिनी' भी कहते हैं, व्रतिनी से तात्पर्य व्रत धारण करने वाली श्रमणी। जैन श्रमणियाँ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों को धारण करती हैं, अतः वे 'व्रतिनी' हैं। 'समणी-व्रतिन्याम्' विरतीनां आर्यिकाणां"41 इत्यादि शब्दों से ध्वनित होता है कि श्रमणी और वतिनी पर्यायार्थक हैं। बृहत्कल्प भाष्य में 'व्रतिनी' शब्द का श्रमणी के अर्थ में अनेक बार प्रयोग हुआ है। 42 131. यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुः- दशवैकालिक हरि. वृत्ति अ. 10 132. मूलाचार 5/213, 7/39, 10/20, 57, 58, 123, 124 133. वा. शि. आप्टे, पृ. 1035 134. अभिधान चिन्तामणि कोश, काण्ड 1 गा. 196 पृ. 134 135. आर्यिकायां संयत्याम् - अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 7 पृ. 417 136. संजतीण वि णियमा अवश्यं निर्ग्रन्थीनां भवतीत्यर्थ-निशीथचूर्णि, जिनदासगणि, चतुर्थ उद्देशक, गा. 590. 137. पद्म पुराण, पर्व 78 श्लो 94 138. इदाणिं संजतीण एसेव गमो णियमा -निशीथ भाष्य गा. 600 139. अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जम्हि काले तक्काले संजदो होदि।। -मूलाचार 10/91, पृ. 388 140. अभिधान राजेन्द्र, भाग 7, पृ. 413 141. मूलाचार, गा. 180 की टीका 142. वतिणी वतिणी वतिणी व परगुरूं पर गुरू व जइवइणिं-बृहत्कल्पभाष्य गा. 2224 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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