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पूर्व पीठिका
बृहत्कल्प भाष्य में 'ग्रन्थ' का अर्थ गांठ किया है, जो राग-द्वेष रूपी आन्तरिक एवं धन-धान्यादि परिग्रह रूप बाह्य ग्रन्थि को जीतने का प्रयास करता है, वह 'निर्ग्रन्थ है।120 निर्ग्रन्थ की व्याख्या करके भाष्यकार 'निर्ग्रन्थी' शब्द का भी यही अर्थ मान्य करते हुए कहते हैं
'निर्ग्रन्थी शब्द व्युत्पत्तिरपि निर्ग्रन्थ शब्दवद् दृष्टव्या, लिंगमात्रकृत भेदत्वादनयोरिति। 127 अर्थात् भगवान महावीर के शासन में निर्ग्रन्थ एवं 'निर्ग्रन्थी' के आचार, नियम, मर्यादाओं में कोई भिन्नता नहीं है। दोनों को समान स्थान दिया गया है। निशीथ भाष्य में 'निर्ग्रन्थ' के समान ही 'निर्ग्रन्थी' शब्द की व्युत्पत्ति की है- "णिग्गय गंथी णिग्गंथी-122
1.14.7 भिक्षुणी
जैन आगम भाष्य, नियुक्ति, चूर्णि आदि में अनेक स्थलों पर 'श्रमणी' के लिये 'भिक्षुणी' शब्द उपलब्ध होता है। सर्वप्रथम आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भिक्षुणी शब्द श्रमणी के लिये प्रयुक्त हुआ। वहां भिक्षुणी को स्वादवृत्ति का वर्जन करते हुए सरस आहार में या स्वाद में लोलुप एवं आसक्त नहीं होने का निर्देश किया है। 23 दशवैकालिक में कहा है-जो मुनि वस्त्रादि उपधि में मूच्छित नहीं है, अगृद्ध है, अज्ञात कुल में भिक्षा की एषणा करता है, दोषों से रहित है, क्रय-विक्रय और सन्निधि से विरत तथा सर्वसंग (परिग्रह) से रहित निर्लेप है वह 'भिक्षु' है,124 क्योंकि भिक्षु अपने जीवन का निर्वाह भिक्षा द्वारा ही करता है, व्यवहार भाष्य निशीथ भाष्य 26, निशीथचूर्णि27 तथा दशवैकालिक नियुक्ति 28 आदि ग्रंथों में 'भिक्षु' शब्द की यही व्युत्पत्ति की गई है। अर्थात् श्रमणी को भिक्षा हेतु शुद्धता, निर्दोषता एवं संयम-निर्वाह का विशेष लक्ष्य रखना चाहिये।
व्यवहारभाष्य में भिक्षु की व्युत्पत्ति "भिदंतो यावि खुधं भिक्खू' इस प्रकार की गई है। कहीं-कहीं पर अष्टविध कर्म-ग्रन्थि का भेदन करने के अर्थ में भी 'भिक्षु' शब्द प्रयुक्त हुआ है
"भेत्ताऽऽगमोवउत्तो दुविह तवो भेअणं च भेत्तव्व।
अट्टविहं कम्मखुहं तेण निरूत्तं स भिक्खुत्ति॥130 120. सहिरण्यक: सग्रन्थः, अत्र हिरण्य ग्रहणं बाह्याऽऽभ्यन्तर परिग्रहोपलक्षणम्'-बृहत्कल्पभाष्य, भाग 2, गा. 806, पृ. 257 121. वही, पृ. 257 122. निशीथभाष्य, सूत्र 23, चतुर्थ उद्देशक 123. आचारांग 1/8/6 124. उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अन्नायउंछपुल निप्पुलाए। कयविक्कयसन्निहिओ विरए सव्वसंगावयए य जे स भिक्खु।।
-दशवैकालिक 10/26 125. भिक्खणसीलो भिक्खू व्यवहार भाष्य गा. 189, 126. निशीथभाष्य, गा. 6275 127. भिक्षाभोगी वा भिक्खू निशीथचूर्णि 4 पृ. 271 128. जं भिक्खमत्तवित्ती तेण व भिक्खू - दशवैकालिक नियुक्ति 344 129. व्यवहारभाष्य गा. 42 130. आचार्य तुलसी, निरूक्तकोश, पृ. 220, लाडनूं, वर्ष 1984,
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