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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ऋग्वेद के अश्रमण शब्द की व्याख्या में सायण ने भी 'अश्रमणाः श्रमणवर्जिताः' कह कर उसकी श्रमणातीत अवस्था का संकेत किया है। 1 10
1.14.4 शमनी
'श्रमणी' का ही एक अन्य रूप संस्कृत में 'शमनी' के अर्थ में भी प्राप्त होता है। मागधी भाषा में 'श्रमणी ' के स्थान पर 'शमनी' प्रयोग मिलता है। विदेशों में 'शमन' तथा 'शमन धर्म' के नाम से 'श्रमण धर्म' प्रचलित रहा है । " शमनी शब्द 'शमु उपशमे' धातु से निर्मित हुआ है जिसका अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखने वाली । श्रमणियाँ संयम, समिति, ध्यान, योग, तप और चारित्र द्वारा पापों का शमन करती हैं, अतः उन्हें 'शमनी' भी कहते हैं। 12
1.14.5 समणी
अर्द्धमागधी प्राकृत में 'श्रमणी' का 'समणी' रूप बनता है। जैन आचार्यों ने 'समणी' शब्द को विभिन्न अर्थों में व्याख्यायित किया है। स्थानांग सूत्र की टीका में कहा है
जह मम ण पिअं दुक्खं जाणिआ एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ अ, सममणई तेण सो समणो ।।13
अर्थात् जो सभी प्राणियों को आत्मतुल्य समझकर किसी भी जीव का हनन नहीं करता, वह 'समण' है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात कही है- 'समयाए समणो होई | 14
जैन समण - समणी समताभाव के आराधक होते हैं वे शत्रु-मित्र पर समदृष्टि रखते हैं, उनके लिये संसार में न कोई प्रिय है न अप्रिय अनुकूल अथवा प्रतिकूल अवस्थाओं में समान वृत्ति व प्रवृत्ति होने से उन्हें 'समण' या 'समणी' यह सार्थक संबोधन प्राप्त हुआ है।
1.14.6 निर्ग्रन्थी
जैन श्रमणी का आगम-सम्मत नाम 'निग्गंथी' या 'णिग्गंथी' है । इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सूत्रकृतांग 15 सूत्र एवं तत्पश्चात् स्थानांग सूत्र " में हुआ है। ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग " भगवती" आदि परवर्ती आगम- साहित्य में एकाधिक बार 'निग्गंधी' शब्द श्रमणी के लिये प्रयुक्त हुआ है।
110. 'तृदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणा अग्रथिता अमृत्यव: ' - ऋग्वेद 10/94/11 111. दृष्टव्य-जवाहरलाल जी जैन, भारतीय श्रमण संस्कृति, पृ. 3
112. मूलाचार 9/26
114. उत्तराध्ययन 25/32
116.
1/167-269, 3/345, 4/59; 5/98-100, 6/2, 3, 100 117. गोयमादिए समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेत्ता....... - ज्ञातासूत्र 1 / 1 / 204
118. उवासगदशा 2/46, 47; 6/28, 29
119. भगवती 7/22 से 25; 8/254
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113. स्थानांग टीका पृ. 272
115. सूत्रकृतांग 2/1/11
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