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________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ अंजना के महलों में आए, इस बात से अनभिज्ञ सासु केतुमती ने अंजना को कलंकिनी समझकर गर्भवती अवस्था में घर से निकाल दिया, वह पीहर में आश्रय लेने पहुंची, तो उसके चरित्र पर शंका करके न पिता ने अपने घर में रखा न भाईयों ने। अंजना, सखी बसन्तमाला के साथ वन की ओर चल दी, वहीं हनुमान का जन्म हुआ। वन में एकाकी अंजना को देख उसके मामा 'हनुमत्पाटन' लेकर आये। पवन जब युद्धभूमि से लौटे तो घर पर अंजना को नहीं देखकर उसके वियोग में प्राण-त्याग के लिये तैयार हो गये। अंत में अंजना और पवनंजय का मिलन हुआ। दोनों हनुमान को राज्य सौंपकर दीक्षित हो गये। अंजना ने उग्र तप और संलेखना द्वारा शरीर त्याग किया। वह महाविदेह से मोक्ष प्राप्त करेंगी। अंजना सती शिरोमणि थी, उसमें भारतीय नारी का सजीव चित्र रूपायित हुआ है। इसका मूल आधार त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित का 7वां पर्व है। इसके अतिरिक्त अंजना सती के चरित्र पर अनेक रास, काव्य, नाटक, उपन्यास आदि भी रचे गये हैं।" 2.3.43 मनोदया पद्मपुराण में तीर्थंकर मुनिसुव्रत के तीर्थ की आर्यिका मनोदया का वर्णन है, ये हस्तिनापुर के राजा इभवाहन की रानी चूड़ामणि की सर्वगुणालंकृत कन्या थी, युवती होने पर अयोध्या के राजा सुरेन्द्रमन्यु के पुत्र ब्रजबाहु से विवाह हुआ, एकबार मनोदया अपने पति एवं भाई के साथ हस्तिनापुर जा रही थी, रास्ते में बसंतपर्वत की एक महाशिला पर ध्यानमग्न मुनि को देखा, उदयसुन्दर ने अपने बहनोई जो एकटक मुनि को देख रहे थे, विनोद में पूछा-"क्या, तुम्हारी भी मुनि बनने की भावना बन रही है। अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारा सखा बन जाऊंगा।" यह सुनते ही वज्रबाहु एकदम हाथी से उतरकर पर्वत पर चढ़ गए और तत्र स्थित गुणसागर मुनि के चरणों में नमस्कार कर दीक्षा की प्रार्थना की। उदयसुंदर यह देखकर दंग रह गये, बहनोई को केश लुञ्चन करते देख उनका मन भी वैराग्यवासित हो गया। नवपरिणिता मनोदया ने भी अपने पति व भ्राता के मार्ग का अनसरण किया। दीक्षा लेकर घोर संयम व तपश्चरण की आराधना कर वह देवलोक में गई।78 2.3.44 गणिनी अनुद्धरा अनुद्धरा महातपस्वी आचार्य मतिवर्धन के संघ की गणिनी आर्यिका थीं। पद्मपुराण में उल्लेख है कि जब आचार्य पद्मिनीनगरी के बंसत तिलक उद्यान में पधारे तो वहाँ का राजा विजयपर्वत इस ज्ञानी, ध्यानी, स्वाध्यायी मुनि एवं आर्यिका संघ के दर्शन करने आया और अपनी अनेक शंकाओं का समाधान पाकर विरक्त भाव से उसने भी जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर ली।" 2.3.45 वरधर्मा गणिनी बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में गणिनी वरधर्मा का उल्लेख आता है। वनवास के प्रसंग में एकबार 76. (क) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 8 (ख) जैनकथाएं भाग 2 77. देखें, जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 2 पृ. 133, 268,330, 344,353, 450, 491 भाग-3, पृ. 72, 362, भाग-6, पृ. 183, भाग 7- पृ. 85%; जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास पृ. 264, 265 78. पद्मपुराण पर्व 21 भाग 1 पृ. 453, जैन पुराण कोश पृ. 275 79. पदमपुराण पर्व 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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