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श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ
में ये 'सरस्वतीसुता' के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी "विक्रम भक्तामर" की रचना एक उच्चकोटि की विद्वद्भोग्य रचना है। कई अष्टक रचनाएँ भी गुरूदेवों की स्तुति रूप में रची हैं। तप के क्षेत्र में वर्धमान आयंबिल तप की 78 ओली व दो वर्षीतप सम्पन्न कर चुकी हैं। इनकी शिष्याएँ - श्री गीतपद्माश्रीजी, प्रीतयशाश्रीजी, पावनयशाश्रीजी, प्रज्ञप्तियशाश्रीजी, पवित्रयशाश्रीजी, मंदारयशाश्रीजी एवं प्रसन्नयशाश्रीजी हैं, प्रशिष्याएँ पुनीतयशाश्रीजी आदि वर्तमान में 48 विदुषी तपस्विनी साध्वियों की ये प्रमुखा हैं।32 5.3.12.4 श्री वाचंयमाश्रीजी (संवत् 2006 से वर्तमान)
श्री रत्नचूलाजी की भगिनी श्री वाचयमाश्रीजी 12 वर्ष की अल्पायु में उन्हीं के साथ दीक्षित होकर प्रवर्तिनी श्री सुव्रताजी की शिष्या बनी। रत्नचूलाश्रीजी के समान ही इन्होंने भी आगम, धर्मग्रंथ, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष आदि सभी विषयों पर प्रभुत्व स्थापित किया है। अध्ययन के साथ अध्यापन की कला भी उत्कृष्ट कोटि की है। 'बेन महाराज' के नाम से प्रसिद्ध आप द्वारा प्रेरित सभी आयोजनों ने आपको 'श्रेष्ठ श्रमणी रत्न' की संज्ञा प्रदान करवाई है। समायोजन और नियोजन शक्ति आपकी अनूठी है, प्रत्येक व्यक्ति को उसकी रूचि व क्षमता के अनुसार उस कार्य में संलग्न कर उसकी कार्य शक्ति व आत्म विश्वास की अभिवृद्धि करने में आप सिद्धहस्त हैं। आप द्वारा रचित 'कमल पराग' 'पाथेय कोईनु श्रेय सर्वन,' प्रतिक्रमण चिंतनिका दशवैकालिक चिंतनिका उत्तराध्ययन चिंतनिका व आचारांग चिंतनिका' आदि उच्चकोटि के ग्रंथों को पढ़कर विभिन्न गच्छ तथा संप्रदाय की साध्वियाँ आपसे मार्गदर्शन ग्रहण करने आती हैं। आयंबिल की 62 ओली व वर्षीतप कर तप के क्षेत्र में भी अग्रणी रही हैं। शिष्याएँ - अर्हत्पद्माश्रीजी, परमपद्माश्रीजी, वसुपद्माश्रीजी, पार्श्वयशाश्रीजी,
जी. शीलयशाश्रीजी. दिव्ययशाश्रीजी। प्रशिष्याएँ - विमलयशाश्रीजी तीर्थयशाश्रीजी. विक्रमयशाश्रीजी. परमेष्ठीयशाश्रीजी, लक्ष्याशाश्रीजी. संभवयशाश्रीजी, सौधर्मयशाश्रीजी, लब्धियशाश्रीजी, सौभाग्ययशाश्रीजी, वाणीयशाश्रीजी, लोकेश्वरीश्रीजी, सर्वेश्वरीयशाश्रीजी, हर्षितयशाश्रीजी। आपकी लघु साध्वी बहन शुभोदयाश्रीजी ने पल्लीवाल प्रदेश में जाकर खूब धर्मप्रभावना की, लगभग 36 जिन मंदिरों का जीणोद्धार तथा नव निर्माण कराया, 11 आराध ना भवन एवं उपाश्रय बनवाये, धार्मिक शिविरों के आयोजन करवाये। श्री वीरेशपद्माश्रीजी, जिनेशपद्माश्रीजी, विद्वत्पद्माश्रीजी, विभातयशाश्रीजी इनकी शिष्याएँ तथा विराजयशाश्रीजी प्रशिष्या हैं।433 5.3.12.5 श्री सर्वोदयाश्रीजी (संवत् 2007-2050)
साध्वी सर्वोदयाश्रीजी 'मां महाराज' के नाम से विख्यात थीं। 36 वर्ष की उम्र में ही अपनी तीन पुत्रियों -रत्नचूलाश्रीजी, वाचयमाश्रीजी, व शुभोदयाश्रीजी के साथ झगड़िया तीर्थ पर संवत् 2007 में संयम अंगीकार किया। आपकी प्रेरणा से 'जिन शासनना श्रमणीरत्नो' ग्रन्थ श्री नंदलाल देवलुक भावनगर द्वारा संपादित व प्रकाशित हुआ है। इन्होंने तीन वर्षीतप, 21, 11 उपवास, चत्तारि तप, 4 अठाई नवपद ओली, प्रतिवर्ष दो-तीन अट्ठम, वर्धमान ओली, पंचमी आदि विविध तपस्याएँ अपने जीवन में की, अंत में चौविहारी अट्ठम के साथ संवत् 2050 अमदाबाद में स्वर्गवासिनी हुईं। इनकी शिष्याएँ श्री नयपद्माश्रीजी, शुभ्रांशुयशाश्रीजी, सुधांशुयशाश्रीजी, शीतांशुयशाश्रीजी, श्री कुलयशाश्रीजी आदि हैं।434 432. (क) वही, पृ. 663 (ख) पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 433. पत्राचार द्वारा प्राप्त सामग्री के आधार पर 434. वही, पृ. 659-63
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