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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.12.1 प्रवर्तिनी श्री सुव्रताश्रीजी (संवत् 1984-2039) श्रीमद् विजयलब्धिसूरिजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों में प्रथम प्रवर्तिनी पद की गरिमा प्राप्त करने वाली श्री सुव्रतश्रीजी अतुल मनोबली महान साध्वी-रत्ना थीं। 14 वर्ष की लघुवय में ही दो उपधान वहन कर इन्होंने अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया। सूरत के श्री ठाकोरभाई व गजराबहन के यहाँ संवत् 1958 में इनका जन्म हुआ। अपने प्रचंड पुरूषार्थ से विवाह के पश्चात् पति की अनुमति प्राप्त कर श्री कल्याणश्रीजी के पास संवत् 1984 कार्तिक कृष्णा 10 को छाणी में दीक्षा - महोत्सव संपन्न हुआ। पाँच वर्ष नित्य एकासणा तथा 25 वर्ष बियासणा किया, इसके साथ ही 20 अठाइयाँ, अष्टापद तप, बीस स्थानक, चत्तारि तप, वर्धमान तप की 28 ओली, सिद्धाचल, पोषदशमी की आराधना, छ? अट्ठम से 99 यात्रा आदि विविध तपस्या करके संयमी जीवन को तेजस्वी बनाया। स्वयं दीक्षा लेकर अपनी माता अंजनाश्रीजी तथा दो बहनों-उमंगश्रीजी व ध्वजप्रभाश्रीजी को दीक्षित किया, अनुक्रम से 17 मुमुक्षु आत्माओं को दीक्षा प्रदान की। गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान आदि दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण कर 55 वर्ष तक ज्ञानदान, संयमदान और धर्मदान का कार्य किया। अंत में संवत् 2039 ईडर में अत्यंत समता व समाधि से देह का परित्याग किया।430 5.3.12.2 श्री हंसाश्रीजी (संवत् 1993-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1974 शिहोर, माता नेमकोरबहन, पिता गुलाबचंदभाई, दीक्षा संवत् 1993 चैत्र कृष्णा 5. गुरूमाता श्री नंदनश्रीजी। आगम ग्रंथों का तलस्पर्शी अध्ययन किया, संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व था, कई संस्कृत के श्लोक रचे। शिष्याएँ -श्री पद्मलताश्रीजी, गौतमश्रीजी, उज्जवलाश्रीजी, हंसकलाश्रीजी, प्रशमकलाश्रीजी, जयलताश्रीजी। प्रशिष्याएँ - श्री हर्षपद्माश्रीजी, अनंतपद्माश्रीजी, लक्ष्मीश्रीजी, चारूप्रज्ञाश्रीजी, प्रियकलाश्रीजी, अध्यात्मकलाश्रीजी, सुवर्णप्रभाश्रीजी, भव्यप्रज्ञाश्रीजी, मुक्तियशाश्रीजी/431 5.3.12.3 श्री रत्नचूलाश्रीजी (संवत् 2006 से वर्तमान) धोलेरा निवासी श्री रतीलाल जेठालाल जवेरी व शांताबेन के यहाँ संवत् 1992 अमदाबाद में इनका जन्म हुआ। बाल्यवय से ही प्रतिभासंपन्न रत्नचूलाश्रीजी 14 वर्ष की उम्र में संवत् 2006 वैशाख कृष्णा 6 पालीताणा में आचार्य राजयशसूरिजी के श्रीमुख से दीक्षा अंगीकार कर श्री सुव्रताजी की शिष्या बनीं। अपनी प्रखरबुद्धि से दिन में सौ गाथा तक कंठस्थ करने की क्षमता से इन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति की। चार प्रकरण, 3 भाष्य, 6 कर्मग्रन्थ, क्षेत्रसमास, बृहत्संग्रहणी, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन ज्ञानसार, तत्त्वार्थसूत्र, अभिध नि चिन्तामणि कोश आदि तो नवकार मंत्र की तरह कंठस्थ है। इनकी ऐसी अपूर्व स्वाध्यायमग्नता ग्रहण व धारणा शक्ति को देख आचार्य देव ने 11 अंगसूत्र कंठस्थ करने को कहा, और इन्होंने 11 ही अंगशास्त्र कंठस्थ कर लिये। उसमें विशालकाय भगवतीसूत्र एकाशन तप के साथ कंठस्थ किया। संस्कृत व प्राकृत भाषा पर इनका मातृभाषा के समान अधिकार है। अपने संघ की ही नहीं, वरन् स्थानकवासी की अनेक साध्वियों को कठिन से कठिन ग्रंथों का अभ्यास इन्होंने सरलता पूर्वक करवाया है, इस प्रकार विशाल श्रमणीसंघ 430. वही, पृ. 653-56 431. वही. पृ. 657-59 438 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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