________________
तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.7.10 श्री मीरांजी "सिरसा' (सं. 1945-2004) 5/61
श्री मीरांजी का ससराल सिरसा (पंजाब) के बरडिया परिवार में व पीहर पुनलसर के सेठिया गोत्र में श्री भोजराजजी के यहां था। पति के स्वर्गवास के पश्चात् 24 वर्ष की वय में इन्होंने कार्तिक कृ. 8 को सं. 1945 में मघवागणी द्वारा दीक्षा ग्रहण की। सं. 1967 में अग्रणी बनकर आपने अनेक क्षेत्रों में धर्म का प्रचार किया। सं. 2004 ज्येष्ठ कृ. 3 को 'मोमासर' में आपका स्वर्गवास हुआ आपने अपने संयमी जीवन में उपवास 3188, बेले 173, तेले 6, चोले 9, पचोले 6 तथा 6 से 13 तक का तप एक बार किया।
7.7.11 श्री जड़ावांजी 'चाड़वास' (सं. 1947-97) 5/70
आप मोमासर निवासी हजारीमलजी पटावरी की सुपुत्री एवं चाड़वास के श्री चुन्नीलालजी सेठिया की पत्नी थीं। पतिवियोग के बाद ये तीन वर्षीय सुत को छोड़कर भाद्रपद शु. 14 को मघवागणी द्वारा बीदासर में दीक्षित हुईं। दीक्षा के 21 वर्ष पश्चात् ये अग्रणी के रूप में विचरीं। आप बड़ी तपस्विनी थीं, आपने 2425 उपवास, 295 बेले, 115 तेले, 41 चोले, 21 पचोले, 4 छह, 5 सात, 3 अठाई, 3 नौ एवं लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप की प्रथम परिपाटी की, कल तप के दिन 3739. अर्थात 10 वर्ष 4 मास 19 दिन आपने तप में व्यतीत किये। पांच बार अढाई सौ प्रत्याख्यान, एकासने आयम्बिल आदि भी किये। नौ की तपस्या के साथ आपने अनशन किया 5 दिन के चौविहार अनशन से भाद्रपद शु. 13 सं. 1997 में स्वर्गस्थ हुईं। साध्वीश्री को अनेक वर्षों से दिखाई नहीं देता था, अनशन के दौरान उनकी एक आंख में ज्योति आ गई। यह तप का ही प्रभाव था। उनकी स्मृति में 'स्मृति-चन्द्रिका' नामक एक लघु पुस्तिका प्रकाशित हुई है।
7.7.12 श्री छगनांजी 'रासीसर' (सं. 1949-81) 5/83
श्री छगनांजी देशनोक के गिरधारीलालजी नाहटा की पुत्री व रासीसर के श्री चतरो जी छाजेड़ की पुत्रवधू थीं। 19 वर्ष की उम्र में विवाह और 10 वर्ष की उम्र में वैधव्य ने उन्हें संसार से विरक्ति दिलादी, अतः 14 वर्ष की वय में मृगसिर कृ. 1 को देशनोक में श्री हुलासांजी के द्वारा दीक्षित हुईं। आप मघवागणी की अंतिम शिष्या थीं। इन्होंने सं. 1967 से 15 वर्ष अग्रणी के रूप में ग्रामानुग्राम विचरण कर जिनशासन की ज्योति बढ़ायी। सं. 1981 आश्विन कृ. 11 को दृढ़ निश्चय और मनोबल के साथ इन्होंने आजीवन अनशन ग्रहण कर लिया, संथारा करते ही शरीर स्वस्थ हो गया, तथापि आपकी दृढ़ता चट्टान की तरह स्थिर रही, 37 दिन का अनशन पूर्ण कर देवगढ़ में परम समाधिपूर्वक ये पंडित मरण को प्राप्त हुईं। आपके संथारे के 16वें दिन चार बहनों ने भी तपस्या प्रारंभ की, उन सबको 22 दिन का उपवास हुआ, एक की नौ दिन की तपस्या हुई।
7.8 षष्ठम आचार्य श्री माणकगणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1948-54)
श्री मघवागणी ने सं. 1948 को सरदार शहर में फाल्गुन शुक्ला चतुर्थी के दिन माणकमुनि को युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। सं. 1949 में मघवागणी का स्वर्गवास हो गया, उस समय माणकगणी आचार्य पद पर अधिष्ठित हए, आप आचार्य पद पर मात्र साढे चार वर्ष तक रहे, सं. 1954 में सुजानगढ़ में 42 वर्ष की उम्र
8. शासन-समुद्र, भाग 13.
821
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org