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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास खूब प्रचार-प्रसार किया। आप उग्र तपस्विनी थीं, आपने 2419 उपवास, 221 बेले, 41 तेले, 17 चोले, 9 पांच, 8 आठ बार व 6, 7 तीन बार, 15 का तप एक बार किया। आपने लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की प्रथम परिपाटी की, जिसमें तप के कुल दिन 3149 होते हैं, परिपाटी संपन्न होने के 20 दिन पूर्व ही कार्तिक शु. 12 सं. 1996 को आप दिवंगत हो गईं। यह तप तेरापंथ धर्मसंघ में सर्वप्रथम आपने किया । 7.7.7 श्री छोगांजी 'छापर' (सं. 1944-97) 5/48 आप अष्टम आचार्य कालूगणी की महिमामयी मातेश्वरी एवं 'ढढेरु' निवासी श्री मूलचंदजी चोपड़ा की धर्मपत्नी थीं। सं. 1934 में पति का देहान्त हुआ, तब पुत्र कालू साढ़े तीन मास का था । सं. 1941 में श्री मृगाजी के उपदेश से छोगांजी का मन संसार से विरक्त हो गया, आश्विन शु. 3 को बीदासर में माता छोगां जी, पुत्र कालू और भगिनी - पुत्री कानकंवर ने श्री मघवागणी से संयम ग्रहण किया। श्री छोगांजी की त्याग - वृत्ति, संयम के प्रति जागरूकता उच्चकोटि की थी। आपने तपस्या भी खूब की । आपने अपने संयम काल में 3914 उपवास 1586 बेले, 86 तेले, 17 चोले, 11 पचोले, 6, 11 (दो) 14, 16, 17, 19, 29 आदि तप किया। 20 वर्ष तक एकान्तर किया। अन्त में तीन दिन की संलेखना और 5 दिन के अनशन के साथ चैत्र कृष्णा 11 सं. 1997 को ये महामनस्विनी, वैराग्यमूर्ति मातुः श्री स्वर्गलोक की ओर प्रयाण कर गईं। 7.7.8 साध्वी प्रमुखा श्री कानकंवरजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 1944-93) 5/49 आप तेरापंथ श्रमणीसंघ की पांचवीं साध्वी प्रमुखा हैं। आपका जन्म भाद्रपद शु. 9 संवत् 1930 श्री लच्छीरामजी मालू के यहां हुआ। सं. 1944 आश्विन शु. 3 को श्री मघवागणी द्वारा आप दीक्षित हुईं। अपनी प्रखर मेधा शक्ति एवं धारणा शक्ति से आपने कई आगम, स्तोक, व्याख्यान आदि कंठस्थ किये। संवत् 1956 से आपके वैदुष्य एवं विद्वत्ता से प्रभावित होकर आचार्य मघवागणी ने अग्रणी साध्वी का स्थान प्रदान किया। संवत् 1981 में आप 'प्रमुखा - पद' पर प्रतिष्ठित हुईं। आप निर्भीक, साहसी एवं वाक् कुशल थीं। संगीत इतना मधुर था कि एक बार चोरों का हृदय भी संगीत श्रवण कर परिवर्तित हो गया। कला भी आपकी बेजोड़ थी। आपने स्वाध्याय व तात्विक जिज्ञासा द्वारा अनेकों लोगों को जिनशासन रसिक बनाया। आपके हृदयग्राही प्रवचनों को सुनने के लिये संत भी लालायित रहते थे एवं पूज्य दृष्टि से आदर देते थे। आप स्वाध्याय में आनन्दानुभूति का अनुभव करती थी, रात में घंटों स्वाध्याय में लीन रहतीं, दिन में आगम वाचन करती थीं, वर्ष भर में आप 32 आगम पढ़ थीं। वि. सं. 1993 भाद्रपद कृ. 5 को अत्यन्त समाधिस्थ अवस्था में राजलदेसर में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.7.9 श्री मुखांजी 'सरदारशहर' (सं. 1944-55 ) 5/52 आप सरदारशहर के श्री जुहारमलजी डागा की सुपुत्री थीं। आप विलक्षण बुद्धि संपन्न बालिका थीं, नौ वर्ष की उम्र में चैत्र शु. 9 को मघवागणी ने सरदारशहर में इन्हें दीक्षित किया। अपनी विनय भक्ति एवं कार्यक्षमता से आप मघवागणी व माणकगणी की विशेष कृपापात्र रहीं, आपको देखकर मघवागणी कहते - " मेरे पास मुखांजी जैसा साधु हो तो मुझे पिछले प्रबन्ध के लिये किसी प्रकार की चिन्ता न रहे।" ये उद्गार मुखांजी के प्रति गौरव व सम्मान के सूचक थे। 11 वर्ष संयम का आराधन कर 20 वर्ष की अल्पायु में ही वे संसार से विदा हो गईं। Jain Education International 820 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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