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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास इस चतुर्विध संघ का एक नाम 'श्रमण संघ' दिया गया है श्रमण संघ का अर्थ मात्र श्रमणों का संघ ही नहीं, अपितु श्रमणियाँ भी इसमें सम्मिलित हैं, मात्र यही नहीं, श्रावक और श्राविका भी इसमें सम्मिलित हैं 'तित्थं पुण चावण्णाइण्णे 'समण-संघे' तंजहा - समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ।' 88 यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र के धारक, वीतराग के उपासक 'जैन मात्र' एक अखण्ड और अविभाज्य संघ है, इन्हें महाव्रतों एवं अणुव्रतों की अपेक्षा दो वर्गों में तथा स्त्री-साधक व पुरूष साधक के विभागानुसार चार भागों में विभाजित कर चार प्रकार का 'संघ' कहा गया है। जैनधर्म में 'संघ' सर्वोच्च शक्ति का प्रतीक माना गया है, तीर्थंकरों ने संघ को अत्यधिक महत्व दिया है, स्थान-स्थान पर 'संघ' की स्तुति की गई है 1 89 जैनधर्म की श्रमणियाँ तीर्थंकरों द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ की मूलभूत इकाई हैं, पुरुषों के समान ही वे भी साधना के पथ पर अग्रसर हो सकती हैं। 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्' इस प्रकार के प्रतिबन्ध के लिये जैनधर्म में कहीं भी किंचितमात्र भी स्थान नहीं है, इसका अकाट्य प्रमाण है - तीर्थंकरों द्वारा अपने-अपने समय में श्रमण- श्रमणी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना किया जाना । यदि स्त्रियों को इस अधिकार से वंचित रखा जाता तो जैनधर्म में चतुर्विध तीर्थ के स्थान पर द्विविध तीर्थ का उल्लेख मिलता, किंतु ऐसा नहीं है। वस्तुतः अनादिकाल से तीर्थंकर तीर्थ स्थापना के समय पुरुषवर्ग और नारीवर्ग दोनों को अपने धर्मसंघ के सुयोग्य एवं सक्षम अधिकारी समझकर चतुर्विध धर्मतीर्थ की ही स्थापना करते आये हैं। महिलाओं ने भी तीर्थंकर प्रदत्त इस अमूल्य अधिकार का हृदय से स्वागत किया है, वे भी पुरूषों की तरह साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़कर रत्नत्रय की आराधिका बनीं हैं। आत्मकल्याण के साथ-साथ विश्वकल्याण की भावना लेकर उन्होंने जन-जन को जो दिव्य पाथेय प्रदान किया, वह आज भी इतिहास के स्वर्णपृष्ठों पर अंकित है। चौबीस तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों की संख्या का तुलनात्मक अध्ययन करने से भी यह बात स्पष्ट होती है कि साधना पथ पर श्रमणियाँ, श्रमणों की अपेक्षा बहुत आगे रही हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के श्रमण जहाँ चौरासी हजार थे, वहाँ श्रमणियाँ तीन लाख थीं। भगवान महावीर के श्रमण 14000 थे, जबकि साध्वियाँ 36000 अर्थात् ढाई गुना से भी अधिक थीं, इसी प्रकार शेष तीर्थंकरों के भी श्रमणों की अपेक्षा श्रमणियों की संख्या सवागुनी से लेकर चतुर्गुणित तक अधिक बताई गई है। अधिक स्पष्टता हेतु चार्ट में देखें (साधु-साध्वी संख्या) जिसमें प्रत्येक तीर्थंकर साधुओं की संख्या से साध्वियों की संख्या अधिक है, ऐसा स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। 88. भगवती सूत्र 20/8 89. (क) वही, शतक 41, उपसंहार गाथा 2, (ख) नन्दीसूत्र, गाथा 4 से 19 Jain Education International 24 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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