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पूर्व पीठिका
नारियों को सराबोर कर दिया था, वे भी रबिया के समान फकीर वेष में परमात्मा की भक्ति करने लगी थी। रबिया का देहान्त जेरूसलम में सन् 753 ई. हुआ माना जाता है।87 1.11 विश्व धर्मों के साथ जैन श्रमणी संस्था की तुलना
जैन-संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में जब हम इतर धर्म एवं दर्शनों का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि श्रमणी-संस्था का जितना व्यवस्थित एवं परिष्कृत रूप जैनधर्म में है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। यद्यपि वैयक्तिक रूप में नारि-साधिकाओं के उल्लेख सभी परम्पराओं में मिल जाते हैं, किंतु भिक्षुणी-संघ के उल्लेख तो मात्र श्रमण-परम्परा के जैन और बौद्ध-धर्म में ही मिलते हैं। इस पर भी आज चाहे बौद्ध-धर्म दुनियाँ के अनेक देशों में व्याप्त है तथापि एक-दो देशों को छोड़कर अन्यत्र भिक्षुणी-संघ की कोई व्यवस्था नहीं है। चाहे जैनधर्म आज मात्र भारत तक सीमित हो फिर भी उसका भिक्षुणी-संघ आज भी भिक्षु-संघ की अपेक्षा अधिक व्यापक एवं प्रभावशाली है। ईसाई धर्म में छनदे की अपनी कुछ संस्थाएँ हैं, किंतु उनमें सभी की विभिन्न आचार-विचार व जीवन-शैली है। तप-त्यागमय, निष्परिग्रही एवं सर्वत्र महाव्रतों की एक डोर में बंधा हुआ जो रूप जैनधर्म की श्रमणियों का मिलता है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। जैन श्रमणियाँ अध्यात्म-प्रधान जीवन की श्रेष्ठतम संवाहिका हैं, वे अध्यात्म को ही परम पुरूषार्थ मानकर स्वात्म-कल्याण एवं आत्मोपलब्धि को अपना चरम व परम लक्ष्य बनाकर चलती हैं। सांसारिक विषय-भोगों को असार, जन्म-मरण का कारण जानकर उनसे विरक्त रहती हैं, वे मात्र तप-संयम की साधना, कषायों का निग्रह, प्रशस्त ध्यान आदि शाश्वत सुख की उपदेशिकाएँ हैं, अत: संपूर्ण विश्व में मात्र जैनधर्म की श्रमणियाँ ही पुरूषों के समान 'मसीहा' के रूप में पूज्यनीय बनी हैं। 1.12 जैनधर्म की चतुर्विध संघ-व्यवस्था एवं उसमें श्रमणियों का स्थान
जैनधर्म में 24 तीर्थंकरों अथवा धर्म संस्थापकों की दीर्घकालीन परम्परा चली आ रही है। तीर्थंकर अर्थात् चतुर्विध धर्मतीर्थ के संस्थापक वीतराग, अर्हन् परमात्मा। तीर्थंकर अपने धर्मशासन में आचार, संगठन और व्यवस्था को सूत्रबद्ध बनाये रखने के लिये 'संघ' की संरचना करते हैं। संघ के प्रमुख घटक हैं-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका। श्रमण-श्रमणी पाँच महाव्रत -(अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह), पाँच समिति- (देखकर लना, विचार पूर्वक बोलना, शुद्ध एवं निर्दोष भिक्षाचर्या करना, विवेक युक्त आदान-प्रदान एवं विवेक युक्त परिष्ठापन करना) तीन गुप्ति (मन, वचन एवं काया की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध) एवं रात्रि भोजन त्याग आदि व्रतों के संपूर्ण पालक होते हैं। श्रावक-श्राविका के 12 व्रत होते हैं, जिन्हें 'अणुव्रत' कहा जाता है। अणुव्रत इच्छानुसार ग्रहण किये जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में महाव्रत उस मोती के समान है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, अणुव्रत स्वर्ण के समान हैं जिनका छोटा से छोटा भाग भी किया जा सकता है। श्रमण हो या श्रमणी पाँच महाव्रतों का संपूर्ण पालन करना दोनों को आवश्यक है, वे चतुर्विध धर्म-तीर्थ के अग्रणी स्तम्भ हैं, तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलकर वे स्व-कल्याण तो करते ही हैं, साथ ही श्रावक-श्राविकाओं को भी सम्यक्त्व का बोध देकर मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। श्रमण-श्रमणियों का स्थान संघ में 'गुरु पद' पर है। 87. दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 259
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