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भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध के विशाल श्रमणी संघ थे, यह तो सर्वमान्य सत्य है। किन्तु जहाँ भगवान महावीर ने बिना किसी संकोच के भिक्षु संघ की स्थापना के साथ ही भिक्षुणी संघ की स्थापना कर दी। वहाँ भगवान बुद्ध के मन में भिक्षुणी संघ की स्थापना के सम्बन्ध में प्रारम्भ से ही एक संकोच का भाव था। वे यह मान रहे थे कि भिक्षुणियों को संघ में प्रवेश देने से भिक्षु संघ दूषित हो जावेगा। यद्यपि उन्होंने आनन्द के आग्रह पर अपनी मौसी एवं विमाता गौतमी को संघ में प्रवेश देकर भिक्षुणी संघ की स्थापना तो की किन्तु उनके मन में यह संकोच बना रहा कि भिक्षुणियों के संघ में प्रवेश देने पर भिक्षु संघ चिरस्थायी नहीं रह पायेगा, और ऐसी उद्घोषणा भी की थी। आज विश्व के अनेक देशों में बौद्ध भिक्षु संघों का अस्तित्व देखा जाता है, किन्तु कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः विश्व के सभी देशों में बौद्ध भिक्षुणी संघ प्रभावशाली ढंग से अस्तित्व में नहीं है, इसके विपरीत जैन भिक्षुणी संघ भगवान महावीर के काल से लेकर आज तक न केवल जीवित है, अपितु चतुर्विध संघ में उनका वर्चस्व एवं प्रभाव भी है। चाहे आगमों और आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में भिक्षुसंघ की प्रधानता की बात कही गई हो, किन्तु व्यवहार के स्तर पर भिक्षुणीवर्ग का प्रभाव ही अधिक रहा है। बाहुबली जैसे महासाधक से अपने अहंकार का परित्याग करने या संयम से च्युत् होते हुए अरिष्टनेमी को सत्यमार्ग दिखाने वाली ब्राह्मी, सुन्दरी या राजीमति जैसी भिक्षुणियाँ ही थी। इसी प्रकार स्थूलिभद्र की सातों बहनों का प्रभाव भी कम नहीं था, यद्यपि जैन संघ में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या सदैव अधिक रही है। फिर भी यह दुर्भाग्य का विषय रहा है कि जैन भिक्षुणी संघ का जो अवदान है वह प्रायः उपेक्षित ही रहा है। साध्वी विजयश्रीजी ने मेरे सान्निध्य में जैन भिक्षुणी संघ की क्रमबद्ध इतिहास एवं उनके अवदान को सविस्तार प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।
भारतीय संस्कृति में श्रमणी संस्था या श्रमणी संघ के विकास के पीछे मूलभूत अवधारणा यह रही है कि जिस प्रकार पुरुष को अपने आध्यात्मिक विकास का अधिकार है, उसी प्रकार स्त्री को भी अपने आध्यात्मिक विकास का पूर्ण अधिकार
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