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है, वह केवल पुरुष की भोग्या या दासी नहीं है, उसे भी पुरुष के समान ही अपने जीवन को दिशा निर्धारण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। समानता और स्वतन्त्रता ये दो ऐसे सिद्धान्त थे, जिनके आधार पर श्रमण संघ या भिक्षुसंघ के समान ही भिक्षुणी संघ या श्रमणीसंघ का विकास हुआ। वैदिक धरा की अपेक्षा श्रमण धारा इस सम्बन्ध में अधिक प्रगतिशील रही है। वैदिक धारा में स्त्री को भोग्या के रूप में देखा गया है, जबकि श्रमण संस्कृति में उसे समता और स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के आधार पर पुरुष के समकक्ष ही माना गया। यद्यपि भगवान बुद्ध ने भिक्षुणी संघ की स्थापना के समय आठ गुरुधर्मों की शर्त रखी थी और इसी प्रकार जैन-श्रमणी संघ में पुरुष की ज्येष्ठता को स्वीकार करते हुए यह कहा गया था कि वयोवृद्ध एवं चिर-प्रव्रजित साध्वी के लिए भी नव दीक्षित भिक्षु या मुनिवंदनीय होगा, किन्तु मेरी दृष्टि में यह सब तात्कालिक पुरुष प्रधान संस्कृति का प्रभाव था, जिसे लोक व्यवहार के निर्वाह के लिए उन्हें स्वीकार करना पड़ा होगा। फिर भी इतना निश्चित है कि जैन एवं बौद्ध धर्मों ने भिक्षुणी संघ की स्थापना कर नारी की समानता एवं स्वतन्त्रता की रक्षा की है। उनके लिए प्रव्रज्या का द्वार खोलकर उन्हें पुरुष की दासता से मुक्त होने का मार्ग दिखाया है अन्यथा अनेकों विधवाओं, परित्यक्ताओं और पुरुष की दासता से मुक्त होकर अपने आध्यात्मिक विकास की आकांक्षा रखने वाली कुमारिकाओं को दुर्भाग्यपूर्ण जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता। मात्र यही नहीं क्रूर सतीप्रथा के चलते, उन्हें भी जीवित जलने को विवश होना पड़ता। वस्तुतः भिक्षुणी संघ की व्यवस्था नारी जाति के आत्मसम्मान और गौरव की रक्षा का समुचित उपाय था। फिर भी यह दुर्भाग्य का ही विषय रहा है कि जैन-धर्म में नारी जाति के गौरव और भिक्षुणी संघ के अवदान का सम्यक् मूल्यांकन लगभग तीन हजार वर्ष के जैन इतिहास में नहीं हो सका, मात्र प्रकीर्ण उल्लेखों के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में कुछ भी सहेज कर नहीं रखा गया। वस्तुतः साध्वी विजय श्री जी का यह मौलिक प्रयास है कि जिसमें उन्होंने उन प्रकीर्ण उल्लेखों को एक जगह एकत्रित करने का प्रयत्न किया है। साध्वी श्री विजय श्रीजी ने जैन श्रमणी संघ यह वृहद् इतिहास बहुत ही परिश्रम पूर्वक तैयार
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