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प्राक्कथन
भारतीय संस्कृति में श्रमणी संस्था का इतिहास लगभग रामायण एवं महाभारत काल से मिलने लगता है। यद्यपि ऋग्वेद में घोणा, रोमाशा, अपाला, विश्ववारा, सूर्यासावित्री आदि वेदसूत्रों की रचना करने वाली स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु वे सामान्य विदुषी स्त्रियाँ थी या श्रमणी थी यह निश्चय करना आज कठिन है, यद्यपि वे सभी सूक्तों की रचयित्री होने के कारण कवि शक्ति-सम्पन्ना विदुषी नारियाँ थी। वेदों में ऐसी स्त्रियों के लिए भिक्षुणी, संन्यासिनी अथवा परिवाजिका आदि शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है, इसलिये उन्हें श्रमणी कहना उचित नहीं है। बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि के द्वारा अपनी सम्पत्ति का दोनों पत्नियों में विभाजन करके संन्यास ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है। किन्तु याज्ञवल्क्य के संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् गार्गी एवं मैत्रेयी ने क्या किया, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि मैत्रेयी को ब्रह्मवादिनी अवश्य कहा गया है। प्रो. पी.वी. काणे के अनुसार ब्रह्मवादिनी नारियों के लिये उपनीत होना, अग्नि की उपासना करना अर्थात् हवन आदि करना, वेदाध्ययन करना और भिक्षाचर्या करके अपने घर में भोजन करना आवश्यक था। इससे यह स्पष्ट है कि वे एक सीमित अर्थ में संन्यासिनी की तरह ही जीवन जीती थी, फिर भी उनके लिये गृहत्याग की अनुमति नहीं थी।
स्त्री संन्यासिनियों एवं भिक्षुणियों के उल्लेख हमें रामायण एवं महाभारत काल से मिलते हैं। वाल्मिकी रामायण में राम के वनगमन के समय सीता के द्वारा भिक्षुणी जीवन की प्रशंसा की गई है। वाल्मिकी रामायण के अरण्य-काण्ड में शबरी के भिक्षुणी-जीवन की प्रशंसा करते हुए उसे "श्रमणी शंसितव्रताम्" कहा गया है। इससे
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