________________
पूर्व पीठिका संगमरमर के पत्थर पर उत्कीर्ण जैन श्रमणी की बैठी हुई मूर्ति (संवत् 1255)
चित्र १ प्रस्तुत मूर्ति सवस्त्र है, प्रवचन या गणधर-मुद्रा का आभास कराती भद्रासन पर स्थित है। मूर्ति के बांये हाथ में मुखवस्त्रिका है, दांया हाथ खंडित हो गया है, तथापि जितना भाग हृदय-प्रदेश पर दिखाई देता है उस पर से लगता है कि शिल्पी ने उस हाथ में माला दी हो। रजोहरण को मस्तक के पृष्ठ भाग में दिखाया है जो प्राचीनकाल की मूर्तियों में अधिकांश रूप से देखा जाता है।
मूर्ति के दोनों ओर कुल चार गृहस्थ श्राविकाएँ दर्शाई हैं, इसमें दो आकृतियाँ अखण्ड हैं, एक खड़ी और दूसरी बैठी हुई है, खड़ी आकृति अपनी पूज्या श्रमणी की वासक्षेप से पूजा करती प्रतीत होती है। यह कृति किसी अग्रणी भक्त श्राविका की प्रतीत होती है। उसके मुख पर शिल्पी ने अंतरंग भक्ति-भाव व प्रसन्नता का मनोरम दृश्य अंकित किया है। मूर्ति के ऊपर तीर्थंकर की एक प्रतिमा भी उटैंकित की है। इस मूर्ति का शिल्प एवं दर्शन इतना आकर्षक व भावपूर्ण है कि मुनि यशेविजयजी ने इसे प्राप्य साध्वी मूर्तियों में सर्वश्रेष्ठ उल्लिखित किया है। ____ मूर्ति के नीचे "वि. सं. 1255 कार्तिकवदि 11 बुधे देमतिगणिनी मूर्ति (:)।" इस प्रकार का लेख उटंकित है। यह मूर्ति पाटण (गुजरात) के अष्टापद जी के मंदिर में है।286 286. मुनि श्री यशोविजयजी, आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 173.
71
Jain Education International
For Private
odnal Use Only
www.jainelibrary.org