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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.6.8 आर्यिका प्रभावती (वि. सं. 757)
चन्द्रगिरि पर्वत पर शासनवस्ति के पूर्व की ओर के शिलालेख में नमिलूर संघ की प्रभावती आर्या के द्वारा संलेखना व्रत धारण कर दिव्य शरीर प्राप्त करने का उल्लेख है।" 4.6.9 आर्यिका दमितामती (वि. सं. 757)
चन्द्रगिरि पर्वत की शासनवस्ति के पूर्व की और के शिलालेख में ही मयूरग्राम संघ की आर्यिका दमितामती के कटवप्र पर्वत पर समाधिमरण का उल्लेख है।2 4.6.10 नागमति गन्ति (वि. सं. 757)
आप अदेयरेनाड में चित्तूर के मौनी गुरू की शिष्या थी; इन्होंने तीन महीने के व्रत के पश्चात् शरीर त्याग किया। मौनी गुरू को कोट्टर के गुणसेन और नविलूर संघ के वृषभनन्दि का गुरू माना गया है, वृषभनंदि का समय शक संवत् 622 (वि. संवत् 757) का है, वहाँ इन्हें अगलि के मौनिगुरू कहा है। अदेयरेनाडु, संभव है पल्लव नरेश नन्दिवर्म के एक दानपत्र में 'अदेयराष्ट्र का उल्लेख आया है, वही हो।"
4.6.11 धण्णे कुत्तारे (वि. सं. 757)
चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ वस्ति के दक्षिण की और के शिलालेख पर पेरूमाल गुरू की शिष्या धण्णेकुत्तारेवि गुरवी के समाधिमरण का लेख उट्टांकित है। यह आर्यिका थी। 4.6.12 कमलश्री (विकम की 9वीं शती)
ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता इन्द्रनन्दि योगीन्द्र जो द्रविड़ संघ के थे, उन्होंने उक्त ग्रन्थ की उत्थानिका में लिखा है कि, दक्षिण के मलय देश के हेमग्राम में द्रविड़ संघ के अधिपति हेलाचार्य थे, उनकी शिष्या कमलश्री को ब्रह्मराक्षस लग गया उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए हेलाचार्य ने ज्वालामालिनी की साधना की। देवी के साक्षात् होने पर आचार्य ने कहा, "मुझे अन्य कुछ नहीं चाहिए, मेरी शिष्या को ग्रहमुक्त कर दो" देवी के मंत्र से शिष्या स्वस्थ हो गई। इसके पश्चात् देवी के आदेश से हेलाचार्य ने "ज्वालिनीमत" नामक एक ग्रन्थ की रचना की, उक्त ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति के 22वें पद्य में उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और बीजाव नाम के शिष्यों के साथ "सांतिरसव्वा" नाम की आर्यिका का भी उल्लेख किया है। 'कमलश्री' और 'आर्यिका सांतिरसव्वा' का समय विद्वानों ने 8वीं या 9वीं शताब्दी माना है।" 31. अभिलेख 27 (114) जै. शि. संग्रह, भाग । पृ. 11 32. अभिलेख 27 (114) जै. शि. संग्रह, भाग 1 . 11 33. अभिलेख 2 (20) जै. शि. संग्रह, भाग 1, पृ. 13 34. अभिलेख 10 (7) जै. शि. सं. भाग 1 35. जुगल किशोर मुख्तार -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग 1 पृ. 135 36. वही, भाग - 1 पृ. 63
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