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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.6.64 सुभद्रा
एक आर्यिका। नित्यालोकपुर के राजा महेन्द्रविक्रम की रानी सुरूपा इन्हीं से दीक्षित हुई थी।232
2.6.65 सुमति
अपराजित बलभद्र और रानी विजया की पुत्री। इसने एक देवी से अपना पूर्वभव सुनकर सुव्रता आर्यिका के पास सातसौ कन्याओं के साथ दीक्षा ले ली थी। आयु के अन्त में यह आनत स्वर्ग के अनुदिश विमान में देव हुई।233
2.6.66 सुमति
एक गणिनी आर्यिका थी। धातकीखंडद्वीप के तिलकनगर की रानी सुवर्णतिलका ने इन्हीं से दीक्षा ली थी।14 2.6.67 सुरूपा
जंबूद्वीप के विजयार्धपर्वत की दक्षिण श्रेणी के गगनवल्लभ नगर के राजा विद्युद्वेग विधाधर की पुत्री। यह नित्यालोकपुर के राजा महेन्द्रविक्रम को विवाही गयी थी। ये दोनों पति-पत्नी जिनेन्द्र की पूजा करने सुमेरू पर गये थे। वहाँ चारण ऋद्धिधारी मुनि से धर्मोपदेश सुनकर इसका पति दीक्षित हो गया था। इसने भी सुभद्रा आर्यिका से संयम धारण किया।35
2.6.68 सुलोचना
भरतक्षेत्र के काशीदेश की वाराणसी नगरी के राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा देवी की पुत्री। इसके हेमांगद आदि एक हजार भाई तथा लक्ष्मीमती एक बहिन थी। रंभा और तिलोत्तमा इसके अपर नाम थे। इसने अपने स्वयंवर में आये राजकमारों में जयकमार का वरण किया था। भरतेश चक्रवर्ती के पत्र अर्ककीर्ति ने इसके लिये जयकमार से युद्ध किया, परन्तु इसके उपवास के प्रभाव से युद्ध समाप्त हो गया था। इसने जयकुमार पर गंगा नदी में काली देवी के द्वारा मगर के रूप में किये गये उपसर्ग के समय पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान कर उपसर्ग समाप्ति तक अन्न-जल का त्याग कर दिया था। इस त्याग के फलस्वरूप गंगादेवी ने आकर उपसर्ग का निवारण किया। जयकुमार ने इसे पट्टबंध बांधकर पटरानी बनाया था। इसके पति जयकुमार को कांचनादेवी उठाकर ले जाना चाहती थी, किन्तु इसके शील के प्रभाव से भयभीत होकर अदृश्य हो गयी थी। जयकुमार के दीक्षित हो जाने पर इसने भी ब्राह्मी आर्यिका से दीक्षा ले ली थी, तथा तप करके यह अच्युत स्वर्ग में देव हुई थी।236 2.6.69 सुवर्णतिलका
धातकीखंडद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में स्थित तिलकनगर के राजा अभयघोष की रानी। इसके विजय और जयन्त दो 232. मपु. 71/420, 423 दृ. जैपुको. पृ. 454 233. मपु. 63/2-4,12-24 दृ, जैपुको. 456 234. मपु. 63/175 दृ. जैपुको. पृ. 456 235. मपु. 71/419-24 दृ. जैपुको पृ. 459 236. मपु. 43/124-36, 329; 44/327-40, 45/2-7, 142-149 दृ. जैपुको. पृ. 460
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