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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
आदि सात साध्वी भगिनियों के ज्ञान निर्झर से सिंचित आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति जैसी महान हस्तियाँ जैन शासन की अभूतपूर्व प्रभावना करने वाली बनीं। आर्या पोइणी ने श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु आयोजित वाचनाओं विचारणाओं एवं परिषद् में विशाल साध्वी समुदाय के साथ उपस्थित होकर अपनी ज्ञानगरिमा का परिचय दिया। ईश्वरी ने संकटकाल से विरक्ति की प्रेरणा लेकर सम्पूर्ण परिवार को प्रव्रजित होने की प्रेरणा दी थी । याकिनी महत्तरा ने जैनधर्म के कट्टर विद्वेषी महापंडित हरिभद्र को जिस व्यवहार कुशलता और अद्भुत प्रज्ञा से जैनधर्म में दीक्षित किया, उस साध्वी का ऋण चुकाने में आचार्य हरिभद्र को 1444 ग्रंथ भी कम पड़ गये थे। वीर निर्वाण की छठी से दसवीं शताब्दी तक निर्मित मथुरा की मूर्तियों में सैंकड़ों श्रमणियों की प्रेरणाएँ निहित हैं। विक्रमी संवत् 757 के आसपास उन सैंकड़ों अमरत्व की पूज्य प्रतिमा श्रमणियों के नामों का उल्लेख श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर है, जिन्होंने जीवन के अन्तिम समय महान संलेखना व्रत अंगीकार कर आध्यात्मिक उत्कर्ष का परिचय दिया। विक्रम की आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक दक्षिण के शिलालेखों में अनेकों ऐसी श्रमणियों के नाम उट्टंकित हैं, जो नर-नारी दोनों को दीक्षित कर आचार्या / भट्टारिका पद पर प्रतिष्ठित हुईं, और बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण करवाकर जैनधर्म व दर्शन के उच्च कोटि के विद्वान पंडित तैयार किये, उन्हें देश के विभिन्न भागों में धर्म प्रचार हेतु भेजा। इसी प्रकार उत्तर भारत के देवगढ़ के मंदिरों में विक्रम की ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी तक की अनेक श्रमणियों के सक्रिय धार्मिक सहयोग और जीवन गाथाओं का अंकन है। एक मानस्तम्भ पर तो आर्यिका का उपदेश भी दो पंक्तियों में उट्टंकित है। विक्रम की तेरहवीं सदी में महत्तरा पद्मसिरि अलौकिक व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी हुई, गूढ़ से गूढ़ तत्त्वज्ञान को सुबोध शैली में समझाने की उनकी कला एवं वैराग्यपूर्ण सदुपदेश से प्रेरित होकर 700 नारियाँ दीक्षित हुई, मातरतीर्थ में उनकी प्रतिमा भी प्रतिष्ठित है, अध्याय एक में हमने उनका चित्र दिया है। इसी प्रकार विक्रमी संवत् 1477 में गुणसमृद्धि महत्तरा ने प्राकृत भाषा में 503 पद्यों में 'अंजणासुंदरीचरियं लिखकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया। धर्मलक्ष्मी महत्तरा को ज्ञानसागरसूरि ने विमलचारित्र में 'स्वर्णलक्षजननी' और 'सरस्वती' कहकर उसकी बहुश्रुतता और संयमनिष्ठता का गान किया है।
मध्ययुग में श्रमणियों ने आगम एवं प्राचीन ग्रंथों के प्रतिलिपिकरण की ओर भी विशेष ध्यान दिया। इसीलिये जैसलमेर पाटण, राजस्थान और उत्तर भारत के हस्तलिखित ग्रंथ भंडारों में मुस्लिम काल में प्रतिलिपि की गई पांडुलिपियाँ सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध होती है। प्राचीन साहित्य के संरक्षण, संवर्धन एवं लेखन में पन्द्रहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक की श्रमणियों का योगदान अप्रतिम है। श्रमणियों द्वारा लिखी गई कुछ पांडुलिपियाँ तो ऐसी हैं, जिनकी अभी तक दूसरी पाण्डुलिपि तैयार नहीं हुई। इनमें कई प्रतियाँ तो सचित्र हैं। यदि श्रमणियों द्वारा लिखित पांडुलिपियों का सर्वेक्षण किया जाये तो एक स्वतन्त्र और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ तैयार हो सकता है।
आधुनिक युग विज्ञान का युग है, इस युग में श्रमणियों ने धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति की है। आधुनिक युग की साध्वियाँ महाविदुषी हैं, सफल प्रवचनकर्त्री हैं, धर्म और दर्शन की प्रौढ़ प्रवक्ता हैं तथा अनेक उच्चस्तरीय ग्रंथों की रचयित्री हैं। इक्कीसवीं सदी की श्रमणियाँ बहुधा बालब्रह्मचारिणी हैं, जो इस सदी की नवीनतम उपलब्धि हैं। इन युवा साध्वियों ने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ विविध भाषाओं का ज्ञान एवं लौकिक शिक्षा की ऊँचाइयों का भी स्पर्श किया है । दिगम्बर संघ की सर्वप्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका गणिनी ज्ञानमती जी ने बड़े-बड़े आचार्यों की टक्कर गहन गूढ़ दार्शनिक ग्रंथों का प्रणयन किया। लगभग 150 ग्रंथ आपकी लेखनी से स्पर्शित होकर निकले हैं। इसी प्रकार सुपार्श्वमतीजी प्रत्येक क्षेत्र में विद्वत्ता को प्राप्त एवं बीसियों ग्रंथों की रचयित्री हैं, आर्यिका जिनमती जी दर्शन शास्त्र की प्रकाण्ड पंडिता हैं, गणिनी विजयमतीजी बीसवीं शताब्दी की सर्वप्रथम गणिनी, अनेक भाषाओं की ज्ञाता, अनेक धर्म संस्थाओं की प्रेरिका एवं विपुल साहित्य निर्मातृ, विशिष्ट संयमी साध्वी हैं। श्री विशुद्धमती जी ज्ञान की अनुपम निधि एवं दुर्गम ग्रंथों की टीकाकर्त्री धर्मप्रभाविका साध्वी हैं।
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