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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ में पूर्वविदेह के रत्नसंचय नगर के राजा क्षेमंधर के प्रपौत्र सहस्रायुध की भार्या श्रीषेणा के पुत्र कनकशांत से इनका विवाह हुआ। कनकमाला और सपत्नी बसंतसेना दोनों ने विमलमती आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण की। घोर तपस्या व अंत में संल्लेखना मरण से मरकर स्वर्गगामिनी हई।172
2.6.5 कनक श्री __ ये अर्धचक्री प्रतिवासुदेव राजा दमितारि की पुत्री थी। जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह के ही वत्सकावती देश का राजा स्तिमितसागर की वसुंधरा रानी से उत्पन्न अपराजित बलदेव एवं अनुमति रानी से उत्पन्न अनंतवीर्य वासुदेव ने युद्ध में दमितारि को मारकर कनकश्री का वरण किया। कनकश्री अपने पितामह कीर्तिधर केवली से पिता की मृत्यु का कारण और पूर्वभव का वैरानुबंध जानकर वैराग्य को प्राप्त हुई एवं सुप्रभा नाम की गणिनी के पास स्वयंप्रभ नामके तीर्थंकर के समवसरण में दीक्षा ली। समाधि से आयुष्य पूर्ण कर वे सौधर्म स्वर्ग में गईं।173
2.6.6 कुन्ती
शौर्यपुर नगर के राजा अन्धकवृष्णि व उसकी रानी सुभद्रा की पुत्री। वसुदेव आदि इसके दस भाई तथा माद्री इसकी बहिन थी। राजा पाण्डु ने अदृश्य रूप से कन्या अवस्था में इसके साथ सहवास किया था। कन्या अवस्था में इसके कर्ण तथा विवाहित होने पर युधिष्ठिर आदि 5 पुत्र हुए। कौरवों ने इसे लाक्षागृह में जला देना चाहा था, किंतु यह पुत्रों सहित सुरंग से बाहर निकल गई थी। वनवास के समय पांडवों ने इसे विदुर के यहाँ छोड़ दिया था। अन्त में दीक्षा धारण कर सोलहवें स्वर्ग में सामानिक देव हुई, वहाँ च्युत होकर यह मोक्ष प्राप्त करेगी।174
2.6.7 गुणवती
यह राजा प्रजापाल की पुत्री तथा प्रभावती आर्यिका की सहवर्तिनी एक गणिनी साध्वी थी, अमितमती आर्यिका के सान्निध्य में संयम धारण कर लिया था। इसने श्रीधरा यशोधरा व धनश्री को दीक्षा दी थी। 75
2.6.8 चंद्रनखा
खरदूषण की पत्नी, रावण की बहिन और शम्बूक तथा सुन्द की जननी। राम-लक्ष्मण पर यह कामासक्त हो गई, किंतु इसका मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ, अंत में शशिकान्ता आर्या के पास साध्वी हो गई, तपस्या करके रत्नत्रय की प्राप्ति की।176
2.6.9 चन्द्राभा
वटपुर नगर के राजा वीरसेन की भार्या। राजा मधु ने वीरसेन को धोखा देकर इसे अपनी स्त्री बनाया, बाद में 172. मपु. 63/124 दृ. जै. पु. को. पृ. 376 173. उत्तरपुराण, पर्व 63 पृ. 172 174. मपु. 70/95-97, 115-16; वही 72/264-66 दृ. जै. पु. को पृ. 88 175. म.पु. 46/223; 59/232; 72/235, दृ. जै. पृ. को. पृ. 112 176. प पु. 43/113; 78, 95, दृ. जै. पु. को. पृ. 122
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