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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.6.2.2 श्री रंगूजी (सं. 1917 के पूर्व 1940 ) विशिष्ट व्यक्तित्व की धनी श्री रंगूजी का जन्म नीमच (मालवा) के हजारीमलजी पोरवाल छोटे साजनात परिवार में हुआ। किशोरावस्था में विवाह और प्रथम चरण में पति वियोग होने से ये एकाकी रह गईं। इनके अप्रतिम रूप-सौंदर्य के दीवाने धमोतर के ठाकुर शेरसिंह ने इनकी हवेली के चारों ओर पहरेदार तैनात कर दिये किंतु ये किसी तरह खिड़की से कूदकर नीमच में उग्रतपस्वी क्रियोद्धारक आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी के चरणों में पहुंच गईं, और दीक्षा की प्रार्थना की, अन्य दो मुमुक्षु बहनों के साथ इन्होंने बा. ब्र. सीताजी की सुशिष्या धन्नाजी की नेश्राय में दीक्षा ग्रहण की। इनके दिव्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनेक कन्याओं ने संयम ग्रहण किया, किंतु इन्होंने सबकों अपनी गुरूभगिनी नवलकंवरजी की शिष्या बनाया। वर्तमान में 'श्री रंगूजी महासती की संप्रदाय' के नाम से प्रसिद्ध आपके विशाल शिष्या संघ में अनेकों विशिष्ट श्रमणियाँ हैं । 421 6.6.2.3 आर्या राजकंवरजी (सं. 1920-48 ) आप रामपुरा (भानपुरा) जिले के कंजार्डा नामक पहाड़ी गांव के निवासी श्री दयारामजी भंडारी की पुत्रवधु थीं, सं. 1903 में श्री रत्नचन्द्रजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ । वि. सं. 1914 में पति श्री रत्नचंद्रजी ने मुनि श्री राजमलजी की निश्रा में दीक्षा ग्रहण कर ली। आपके तीन पुत्र थे, इनमें ज्येष्ठ पुत्र ने मुनि चौथमलजी के मंगल प्रवचन को सुनकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया, तब माता राजकुंवरबाई ने भी अपने तीनों पुत्र - श्री जवाहरलालजी, श्री हीरालालजी श्री नंदलालजी के साथ आचार्य प्रवर श्री शिवलालजी से आर्हती दीक्षा ग्रहण करली। यह दिन पोष शु. 6 सं. 1920 का था । आप साध्वी श्री नवलांजी की शिष्या बनीं। 122 आपकी ज्ञानगरिमा, विनयशीलता, अनुशासन दृढ़ता को देखकर महासती रंगूकंवरजी ने आपको अपनी उत्तराधिकारिणी घोषित की। कुशलतापूर्वक श्रमणी संघ का संचालन करती हुई वि. सं. 1948 में आप स्वर्गवासिनी हो गई 1423 6.6.2.4 प्रवर्तिनी श्री रत्नकुमारीजी (सं. 1920- 1969 ) आप मालवा के भाटखेड़ी ग्राम में माता तुलसा एवं पिता सुखलालजी के यहां जन्मी, नीमच के कोठोड़ा परिवार में विवाह हुआ, पति वियोग के पश्चात् महासती रंगूजी के अपूर्व त्याग से प्रभावित होकर आपने दीक्षा ग्रहण की। आप जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. की संसारपक्षीय मौसी थी, आपके ही पास उनकी मातुश्री केसरकंवरजी ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। सं. 1948 में प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी ने आपकी गुण - गरिमा को देख करके ‘प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया। आपने अपने अनुशासन काल में महासती रंगू मंडल में 5 गण एवं 5 गणावच्छेदिका की नियुक्ति करके साध्वी समूह की सुव्यवस्था की थी। पांच गणावच्छेदिका के नाम (1) श्री सिरेकंवरजी, (2) श्री कंकूजी (3) श्री राजाजी, (4) श्री आणंदकंवरजी (5) श्री फूलांजी । व्यवस्था प्रपत्र को पढ़ने से ऐसा लगता है कि आप परम विदुषी, अनुशासनप्रिय, एवं शास्त्रज्ञा थीं। आपकी त्याग वृति इतनी प्रबल थी कि 26 वर्ष की उम्र से ही चार विगयों का त्याग कर दिया। अपनी वृद्धावस्था में महासती सिरेकंवरजी को उत्तराधिकारिणी नियुक्त कर संवत् 1969 में 18 दिन के संथारे के साथ आप स्वर्ग सिधारीं 1424 421. (क) श्री केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड- 3, पृ. 352; (ख) साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ0 325-27 422. स्था. परंपरा का इतिहास - पृ. 476-77 423. साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ. 327-28 424. वही, पृ. 328-29 Jain Education International 675 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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