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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.6.2.5 प्रवर्तिनी श्री सिरेकंवरजी (सं. 1925-74)
__ आप जावरा में जन्म लेकर बदनावर (म. प्र.) में विवाहित हुई, पतिवियोग के पश्चात् वर्धमान तप की आराधना की एवं महासती रंगूजी के पास संवत् 1925 में दीक्षा अंगीकार की। आपके सदुपदेश से अनेक भव्यात्माओं ने संसार का त्याग किया। आपकी अनेक शिष्याओं में राधाजी घोर तपस्विनी थीं, उन्होंने मासखमण एवं 45 के कई बड़े-बड़े थोक किये। ऐसे ही प्याराजी, रूकमाजी, सरसाजी, हीराजी, गटूजी, जड़ावकंवरजी, सुगनकंवरजी आदि कई विदुषी सतियाँ थीं। आप के 15 वर्ष के शासन में साध्वी समूह का खूब विकास हुआ, अंत में महासती आनंदकंवरजी को अपनी उत्तराधिकारिणी नियुक्त कर संवत् 1974 में ब्यावर में स्वर्गवासिनी हुई। सिरेकवरजी म. सा. के बाद संप्रदाय के दो हिस्से हो गये एक तरफ प्रवर्तिनी आनन्दकंवरजी थीं दूसरी तरफ की प्रवर्तनी प्यारांजी थीं; प्रवर्तिनी प्यारांजी का सती मंडल आचार्य मन्नालालजी की आज्ञा में विचरने लगा था, जो वर्तमान में 'दिवाकर सम्प्रदाय' के नाम से श्रमणसंघ में सम्मिलित हैं।425
6.6.2.6 श्री नानूकंवरजी (सं. 1930)
संवत् 1930 'तिवरी' में नानूकंवरजी ने श्री नंदकंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। गृहस्थावस्था में इनके पति कुष्ठ रोगी थे, नानूकुंवरजी ने मैनासुन्दरी की भांति उनकी सेवा की। पति के निधन पर अंत्येष्टि के लिये आये लोगों में दाग कौन दे जब इसकी कानाफुसी चली व उपेक्षा भाव मालूम पड़ा तो वीरबाला नानुकुंवरजी अपने पति के शव को कपड़े में बांधकर पीठ पर उठाकर श्मशान में गयी व स्वयं अंत्येष्टि क्रिया की। 12 दिन के पश्चात् वैराग्य की भावना तीव्र हो गयी व सती नंदकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। नानूकुंवरजी बेले-तेले पारना करती थीं तथा चातुर्मास के 120 दिन में केवल 7 दिन भोजन करती थीं। ऐसी तपस्विनी सती को वाचासिद्धि मिल जाये इसमें क्या आश्चर्य? एकबार बुरी नियत से एक मुसलमान लघुशंका के लिये सतियों को आता देख बैठ गया, सतियाँजी उसके उठने का इंतजार करने लगी। अनुमानित समय से भी जब अधिक समय हो गया और नहीं उठा तो सती नानूकुंवरजी ने कहा “यह तो बैठा ही रहेगा चलो।" योग की बात, उस मुसलमान भाई का बुरी नियत के कारण पेशाब होना ही बंद हो गया। आखिर उसके कुटुम्बी उसे उठाकर लाये। माफी मांगी तथा मांसभक्षण का त्याग किया। इसी प्रकार और भी आश्चर्यकारक घटनाएँ हुईं।426 6.6.2.7 प्रवर्तिनी श्री आंनदकंवरजी (सं. 1950)
आप मरूधरा के सोजत शहर के श्रेष्ठी प्रभुदानजी संघवी के सुपुत्र किशनलालजी की सबसे छोटी पुत्री थी, आप से बड़े 5 भाई व 5 बहनें थीं। जन्म नाम 'छापी' रखा पर इनके जन्म के बाद दिन-प्रतिदिन वातावरण में एक आनंददायी परिवर्तन आने से इन्हें 'आनंदकंवर' नाम से पुकारने लगे। 12-13 वर्ष की वय में ही सोजत निवासी सलेराजजी मूथा से विवाह सम्बन्ध हुआ, किंतु शीघ्र ही पतिवियोग ने इनकी दशा एवं दिशा को मोड़ दिया, संवत् 1950 में प्रवर्तिनी सिरेकवरजी के पास दीक्षा लेकर ये लक्ष्मीकंवरजी की शिष्या बनीं। इनके नम्र स्वभाव, शुद्ध चारित्रिक निष्ठा एवं गहन तत्त्वज्ञान से प्रभावित होकर अनेकों भव्य आत्माओं ने इनकी चरण शरण
425. वही, पृ. 330 426. लेखक-श्री मोतीलाल सुराना, जैनप्रकाश, मार्च 1983, पृ. 30
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