________________
स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
में दीक्षा ग्रहण की, संवत् 1974 में इन्हें प्रवर्तनी पद प्रदान किया गया। इनके तप-संयममयजीवन का इतना प्रभाव था कि भाटखेड़ी की विधवा ठकुरानी नवनिधिकुमारी 'जैन' बन गई। इतना ही नहीं, वह काष्ठ-पात्र में भोजन करती तथा मुख पर मुखवस्त्रिका बांधे रखती। वर्ष में एकबार 32 ही शास्त्रों का पारायण करती थी. उसने जैनधर्म की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त की। एवं साधु संतों पर दृढ़ निष्ठा रखती। तथा स्वंय को जैन संघ की तुच्छ सेविका कहती थीं। आपने गंगापुर में कई वर्षों से चली आ रही दलबंदी को तोड़ दिया था।
जीवदया की ओर आप प्रारम्भ से ही विवेकशील रही हैं। एक-बार रात्री के समय पाँव में लोहे की पत्ती घुस गई, पांव से खून की धारा बहने लगी, किंतु किसी को कहा नहीं, इसलिये कि रात्रि के समय बहनें दीपक जलाकर अग्निकाय का आरंभ समारंभ करेगी। जावरा में आपने कुछ मुसलमान भाईयों को एक सांप को लाठी से मारते एवं छेड़छाड़ करते देखा, आप के निषेध करने पर उन्होंने शरारत से कहा-'ऐसी दयावती हैं तो ले जाओ इसे।' आपने तुरंत सांप को अपनी झोली में डलवाया और दूर एकांत जंगल में ले जाकर छोड़ दिया। आपकी निर्भीकता एवं जीवदया की भावना देखकर मुसलमान भाई दंग रह गये। इसी प्रकार एकबार रास्ते में एक तेरापंथी भाई को लकड़ी फाड़ते देखा, लकड़ी थोहर की थी और पोली दिखाई दे रही थी, आपने भाई से कहा - 'भाई लकड़ी में जीव जन्तु हो सकते हैं, इसे सावधानी से फाड़ो।' भाई ने सावधानी से लकड़ी फाड़ी तो अंदर से 13 मैंढक फुदकते हुए बाहर निकले, यह देख उस भाई के मन में आपके प्रति अत्यंत श्रद्धा जागृत हुई वह आपका परम भक्त बन गया। आपकी असीम धैर्यता और सहिष्णता का एक प्रसंग है कि एकबार आपके पांव में वाला (नेहरू) हो गया, उसका ऑपरेशन आवश्यक हो गया आपने बिना क्लोरोफोर्म संघे ही होश में पूरा ऑपरेशन करवाया जरा भी हिले नहीं। एक घंटे के इस धैर्य को देखकर डॉ. भी चकित हो गया कि स्त्री होती हुई भी इतनी सहनशीलता एवं मन की दढता आसान बात नहीं है। आपने अपने संप्रदाय में सर्वप्रथम अपनी-अपनी नेश्राय में शिष्य शिष्या, बनाने की परिपाटी को बदल कर एक प्रवर्तिनी की नेश्राय में शिष्या बनाने का विधान बनाया। इस प्रकार आपका संपूर्ण जीवन धर्म, समाज और शासनहितार्थ समर्पित रहा।427
6.6.2.8 श्री सोनांजी (सं. 1957)
___ आप बीकानेर निवासी श्रीमान् सौभागमलजी डागा की धर्मपत्नी थीं, 16वर्ष की उम्र में सं. 1957 म. कृ. 6 के दिन बड़े त्याग-वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की। प्रवर्तिनी आनंदकुमारीजी की आप ज्येष्ठ शिष्या थीं। सम्प्रदाय में कोई नया नियम बनते समय आपकी सलाह ली जाती थी, आपकी त्यागवृत्ति भी सराहनीय थी, 'प्रतिदिन पौरूषी करती थीं, एवं यावज्जीवन दूध का त्याग था, बीकानेर में आप स्थिरवासिनी रहीं।428
6.6.2.9 श्री राजकुमारीजी (सं 1960- ) ____ आप रतलाम निवासी श्री केसरीमलजी भंडारी की सुपुत्री थीं। नौ वर्ष की बाल्यवय में सं. 1960 मृ. कृ. 13 को बड़े उच्च भावों से माताजी के साथ दीक्षा अंगीकार की। आपकी दीक्षा को रोकने के लिये आपकी भुआ ने कई षडयंत्र रचे. गप्तरूप से सगाई कर दी. आपको पिंजरे में डाल दिया, वहाँ से छुटी तो अदालत में केस कर दिया, बयान लेने पर हाकिम ने रतलाम की सीमा के बाहर दीक्षा लेने का फैसला दिया, अंततः कालूखेड़ 427. (क) मुनि नेमिचंदजी, धर्ममूर्ति आनन्दकुमारी, वि. सं. 2008 (प्र. सं.) (ख) साधुमार्गी की सरिता, पृ. 330-31 428. धर्ममूर्ति आनन्दकुमारीजी, पृ. 445
677 For Priate & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org