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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.2.1.15 प्रवर्तिनी श्री सोहनकुंवरजी (सं. 1957-2023 ) उदयपुर जिले के तिरपाल ग्राम के निवासी श्री रोडमलजी की धर्मपत्नी श्रीमति गुलाबदेवी की कुक्षि से वि. सं. 1948 में जन्मी खमाकुंवर ने 9 वर्ष की लघुवय में ही संसार के दृढ़तम रेशमी बंधन वाग्दान को ठुकराकर अपनी मातेश्वरी एवं ज्येष्ठ भ्राताद्वय के साथ महासती रायकुंवरजी के पास बाडमेर जिले के पंचमड़ा ग्राम में दीक्षा अंगीकार की। आप आगम साहित्य की गहन ज्ञाता थीं, प्रतिवर्ष एक बार बत्तीस आगमों का पारायण करने का संकल्प था, आपको शताधिक रास, चौपाइयां भजन आदि कण्ठस्थ थे। आपकी प्रवचनशैली अत्यन्त मधुर व रसप्रद थी। आपने अपने जीवन को अनेक नियमों में आबद्ध किया हुआ था। पांच द्रव्य से अधिक ग्रहण नहीं करना, पर्वतिथि पर तप करना, वर्ष में छह मास चार विगय एवं हरी सब्जी का वर्जन, तीन शिष्याओं के उपरांत शिष्या नहीं बनाना, नवीन पात्र ग्रहण नहीं करना आदि अनेकों नियम आपने धारण किये हुए थे। आपके त्यागमय जीवन का उदाहरण देकर आचार्य गणेशीलालजी महाराज अपनी संप्रदाय की साध्वियों को व्रतनिष्ठ बनने के लिये प्रेरित करते थे। आपके अन्तर्मानस में स्व-पर का भेदभाव नहीं था, कई इतर संप्रदाय की साध्वियों की सेवा-शुश्रूषा, संलेखना, संथारा कराने में अपना अपूर्व सहयोग दिया था। आपकी व्रतों के प्रति दृढ़ निष्ठा, आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन, चिंतन, मनन उद्बोधन तथा सेवा - भक्ति एवं विवेक का अपूर्व समन्वय देखकर सन् 1963 में अजमेर सम्मेलन के समय आपको चंदनबाला श्रमणी संघ की 'प्रथम प्रवर्तिनी' पद पर सर्व सम्मति से विभूषित किया। तीन वर्ष तक इस गरिमामय पद पर प्रतिष्ठित रहकर अंत में भाद्रपद शुक्ला 13 संवत् 2023 में पाली ( पारवाड़) वर्षावास के समय संथारे के साथ आप स्वर्गवासिनी हो गई। आपकी तीन शिष्याएँ थीं- श्री कुसुमवतीजी, श्री पुष्पवतीजी और श्री प्रभावतीजी । 6.2.1.16 श्री लाभकुंवरजी (सं. 1959-2003 ) आपका जन्म ढोल (उदायपुर) निवासी मोतीलालजी ढालावत की धर्मपत्नी तीजबाई की कुक्षि से संवत् 1933 में हुआ था। आपका विवाह सायरा ग्राम के कावड़िया परिवार में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1959 में सादड़ी मारवाड़ में श्री फूलकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपका कंठ मधुर और व्याख्यान कला सुंदर थी। साथ ही आप बहुत निर्भीक वीरांगना थी । एकबार खामनेर से सेमल जाते हुए रास्ते में सशस्त्र डाकू आपको लूटने के लिये आगे बढे, किंतु आपकी निर्भीक वाणी के प्रभाव से डाकुओं के दिल परिवर्तित हो गये, उन्होंने लूटपाट का धंधा त्याग दिया। ऐसी अनेक घटनाएं आपके साधनामय जीवन में घटित हुई। आपकी दो शिष्याएँ - श्री लहरकंवरजी और दाखकुंवरजी हुई। आपका स्वर्गवास संवत् 2003 श्रावण मास यशवंतगढ़ में हुआ । 6.2.1.17 श्री मोहनकुंवरजी आपका जन्म भूताला ग्राम (उदयपुर) के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। नौ वर्ष की अल्पायु आपका विवाह हुआ, भड़ौच में स्नान करते समय पति का स्वर्गवास हो गया, महासती आनंदकुंवरजी के उपदेश से 16 वर्ष की आयु में 'भूताला' में दीक्षा ग्रहण की। 32 वर्ष की स्वस्थ अवस्था में संथारा ग्रहण कर गौतम प्रतिपदा के दिन स्वर्गवासिनी हुई। Jain Education International 537 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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