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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
6.2.1.10 श्री ज्ञानकुंवरजी (संवत् 1950-1987)
वि. सं. 1905 में जम्मड़ ग्राम में आपका जन्म हुआ, तथा बम्बोरा निवासी श्री शिवलालजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ, उनसे आपको एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। आगे चलकर आपके पुत्र ताराचंदजी ने आचार्य पूनमचंदजी के पास एवं आपने छगनकंवरजी के पास संवत् 1950 को जालोट में दीक्षा अंगीकार की। आप बड़ी सेवाभाविनी तपोनिष्ठा साध्वी थीं। वि. सं. 1987 उदयपुर में संथारे सहित स्वर्गवासिनी हुईं 6.2.1.11 श्री माणककुंवरजी (-स्वर्ग. सं. 1985)
आपका जन्म कानोड़ (उदयपुर) में संवत् 1910 में हुआ। श्री फूलकुंवरजी के उपदेश से आपने दीक्षा ग्रहण की। आपकी प्रकृति सरल सरस थी, सेवाभावना भी अत्यधिक थी। 75 वर्ष की आयु में संवत् 1985 आसोज मास में उदयपुर स्वर्गवास हुआ।
6.2.1.12 श्री धूलकुंवरजी (संवत् 1956-2013)
आपका जन्म मादड़ा ग्राम (मेवाड़) निवासी श्री पन्नालालजी चौधरी की धर्मपत्नी नाथीबाई की कुक्षि से संवत् 1935 माघ कृष्णा अमावस्या को हुआ। 13 वर्ष की आयु में 'वास' निवासी चिमनलालजी चोरडिया के साथ आपका विवाह हुआ। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1956 फाल्गुन कृष्णा 13 के दिन 'वास' ग्राम में श्री फूलकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। विनय, वैयावृत्य और सरलता आपके जीवन की विशेषताएं थीं। आपको अनेक शास्त्र और 300 स्तोक कण्ठस्थ थे। आपकी अनेक शिष्याएँ थीं। आपका विहार क्षेत्र राजस्थान और मध्यप्रदेश रहा। वि. सं. 2013 कार्तिक शुक्ला 11 को संथारे सहित गोगुन्दा में स्वर्गवास हुआ। 6.2.1.13 श्री मदनकुंवरजी (-स्वर्ग. 2006)
___ आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी, दीक्षोपरान्त आगमों का गहन अध्ययन किया। आचार्य मन्नालालजी महाराज ने जो स्वंय आगमों के मूर्धन्य विद्वान् थे; उदयपुर में महासतीजी से एक प्रवचन सभा में आगमों से संबंधित 19 प्रश्न पूछे, आपने सभी प्रश्नों का सटीक और सप्रमाण उत्तर देकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया। आचार्यश्री ने कहा-'मैंने कई साधु-साध्वी देखे, पर इनके जैसी प्रखर प्रतिभा सम्पन्न साध्वी नहीं देखी।' आप गुप्त तपस्विनी भी थीं, सेवाभावना आपमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। संवत् 2006 में तीन दिन के संथारे के साथ उदयपुर में स्वर्गवासिनी हुई।
6.2.1.14 श्री तीजकुंवरजी (सं. 1957- )
आपका जन्म उदयपुर के तिरपाल ग्राम में हुआ था, एवं विवाह भी वहीं के सेठ श्री रोडमलजी भोगर के साथ हुआ था, आपके दो पुत्र और एक पुत्री थी, पति की मृत्यु के पश्चात् अपने दोनों पुत्र प्यारेलाल, भेरूलाल और पुत्री खमाकुंवर के साथ संवत् 1957 में दीक्षा ग्रहण की थी। आप उग्र तपस्विनी थीं, 16 वर्ष तक घी के अतिरिक्त दूध, दही, तेल और मिष्टान्न इन चारों विगयों का त्याग किया था। एक दिन के संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ।
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