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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
परलोकवासी हो जाने पर इनके चाचाजी ने इस सहज प्रतिभावंत बालिका को श्री पन्नादेवीजी के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया। संवत् 2004 वैशाख शुक्ला पंचमी के शुभ दिन लुधियाना में आचार्य सम्राट् श्री आत्मारामजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर ये श्री रायकलीजी की शिष्या घोषित हुईं। अपनी प्रत्युत्पन्न मेधा से इन्होंने जैन सिद्धान्ताचार्य की सर्वोच्च परीक्षा उत्तीर्ण की। इनकी प्रवचन शैली अति प्रभावपूर्ण है। श्री पन्नादेवीजी महाराज इनके वैदुष्य के कारण इन्हें अपना ‘मंत्री' कहते थे। इन्होंने 'साधना पथ की अमर साधिका' में श्री पन्नादेवीजी का जीवन चरित्र साहित्यिक व परिमार्जित भाषा शैली में अति सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। ये ज्योतिष आदि विद्याओं में निष्णात सरल स्वभावी विनम्र प्रकृति युक्त व्यक्तित्व की धनी हैं। अर्हद् संघाचार्य श्री सुशीलमुनिजी के संघ में सम्मिलित होती हुई भी ये कठोर नियमों की मनसा अनुमोदना करती हैं। श्री सरलादेवीजी की दो शिष्याएँ हैं-उपप्रवर्तिनी श्री कुसुमलताजी तथा डॉ. साध्वी श्री अर्चनाजी।।66
6.3.2.70 उपप्रवर्तिनी श्री पवनकुमारीजी (सं. 2005-60)
साध्वीरत्न श्री पवनकुमारीजी का जन्म हरियाणा प्रान्त के एक छोटे से ग्राम 'देहरा' में हुआ। आपके पिता का नाम लाला चिरंजीलालजी जैन था एवं माता का श्रीमती ज्ञानमतिजी था। आपने बाल्यकाल में ही श्री हुकमदेवीजी महाराज की शिष्या श्री पदम्श्रीजी महाराज के सदुपदेशों से प्रभावित होकर 13 वर्ष की उम्र में दीक्षा अंगीकार की। आप संस्कृत प्रकृत, हिंदी, आगमज्ञान आदि की ज्ञाता थीं। आपकी प्रवचन शैली बड़ी मधुर व आकर्षक थी। आपकी सद्प्रेरणा से दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग से मान्यता प्राप्त जैन साध्वी पद्मा विद्या निकेतन दिल्ली शक्तिनगर में स्थापित हैं, जहां हजारों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। एवं सैंकड़ों महिलाएं सिलाई की शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं। दि. 8 सितम्बर ई. 2004 को आपका स्वर्गवास शक्तिनगर एक्सटेंशन के जैन स्थानक में हुआ। 67
6.3.2.71 उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्णकान्ताजी (सं. 2005-205) ___ जैन ज्योति महासती श्री स्वर्णकांताजी का जन्म 'लाहौर' (पाकिस्तान) में 26 जनवरी सन् 1921 में हुआ। आपके पिता लाला खजानचंद्रजी जैन एवं माता श्रीमती दुर्गादेवीजी थीं। एक बार बचपन में आपकी टांग पर एक फोड़ा निकल आया, अनेक वैद्य बुलवाए, औषध व मंत्रोच्चार से भी फोड़ा ठीक नहीं हआ तो अनाथीमुनि की तरह आपके हृदय में ये विचार उद्भुत हुए कि 'अगर मेरा फोड़ा ठीक हो गया, तो मैं साध्वी दीक्षा अंगीकार कर लूंगी।' हुआ भी वैसा ही, फोड़ा ठीक हो गया और परिवार वालों की ओर से आने वाले मोह के अनेक अवरोधों को अपनी आत्मशक्ति से पराजित कर अन्ततः जालंधर छावनी में 27 अक्टूबर 1949 को प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी के सान्निध्य में आप साध्वी श्री पार्श्ववतीजी के पास दीक्षित हो गईं। आप जैन शासन की एक ज्योतिर्मयी साध्वी थीं। पंजाब जैन साहित्य की प्रेरिका एवं मानव धर्म की उपदेशिका थीं। अंबाला जालन्धर, सुनाम आदि अनेक ग्रन्थ भंडारों की सुव्यवस्था करना, पंजाब के लोगों में ज्ञान पिपासा जागृत हो, इसके लिये 40 पुस्तकों का पंजाबी भाषा एवं लिपि में लेखन व सम्पादन कार्य करवाना निरयावलिकादि प्राचीन अप्रकाशित सूत्रों का संपादन कर
166. डॉ. साध्वी सुभाषा, श्री कुसुमाभिनन्दनम्, पृष्ठ 172 167. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 408
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