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महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ थी। उसके रूप-सौन्दर्य पर लुब्ध होकर उज्जैन के सम्राट चंडप्रद्योत ने कौशाम्बी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण काल में शतानिक की मृत्यु हो गई। तब देवी मृगावती ने पति-शोक का बहाना कर बड़ी चतुराई से चंडप्रद्योत द्वारा कौशाम्बी का सुदृढ़ किला बनवाया। जब भगवान महावीर कौशाम्बी पधारे तो महारानी ने अपने पुत्र उदयन की सुरक्षा का भार चंडप्रद्योत को सौंपा और उन्हीं की आज्ञा से प्रभु महावीर के संघ में दीक्षा अंगीकार कर ली।
एकबार स्वस्थान पर रात्रि में देरी से लौटने के कारण प्रवर्तिनी चन्दनबाला जी से उपालम्भ पाकर मृगावती आत्मालोचना में प्रवृत हुईं, भाव विशुद्धि से तत्क्षण ही घनघाती कर्मों का क्षय करके केवली बन गई। मृगावती की समर्पणता एवं अपने अज्ञान की आलोचना करती हुई चंदनबाला जी की भी अन्तश्चेतना जागृत हुईं वे अपनी शिष्या के पांव में गिरकर उनकी अशातना हेतु क्षमा मांगने लगीं, उसी रात्रि वे भी सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनी।
अवदान : गुरुणी-शिष्या की आलोचना-प्रत्यालोचना एवं पारस्परिक विनय का यह उच्चतम आदर्श जैन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अनेक आचार्यों एवं विद्वानों की लेखनी का विषय बना है।24
3.2.9 शिवादेवी (वी. नि. 22 वर्ष पूर्व)
शिवादेवी वैशाली गणराज के अध्यक्ष राजा चेटक एवं महारानी पृथा की चतुर्थ कन्या-रत्न थी। विश्व की अद्वितीय सुन्दरी यह शिवादेवी मालव के पराक्रमी सम्राट् चण्डप्रद्योत को स्त्रीरत्न के रूप में प्राप्त हुई थी। चण्डप्रद्योत की आठ रानियों में शिवादेवी का अग्रगण्य स्थान था। 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं, इस आदर्श को उसने अपने जीवन से चरितार्थ किया था। महानगरी उज्जयिनी में जब दैवी प्रकोप से आग लग गई थी, तो इनके सतीत्व के प्रभाव से एवं इनके द्वारा छिड़के गये जल से ही वह शान्त हो पाई थी।
भगवान महावीर के समवसरण में मृगावती ने दीक्षा अंगीकार की, तब शिवादेवी ने भी अपनी ज्येष्ठा भगिनी का अनुसरण कर दीक्षा ग्रहण की थी। आर्या चन्दना के साध्वी-संघ में सम्मिलित होकर श्रमणी शिवादेवी संयम व तप द्वारा आत्मकल्याण में प्रवृत्त हुई। 3.2.10 अंगारवती (वी. नि. 22 वर्ष पूर्व)
जैन साहित्य में चंडप्रद्योत की आठ रानियों का उल्लेख आया है, जो कौशाम्बी की रानी मृगावती के साथ भगवान के पास दीक्षा लेती हैं, उनमें एक है-अंगारवती। यह सुंसुमारपुर के राजा की पुत्री थी। इसे प्राप्त करने के लिए प्रद्योत ने सुसुमारपुर पर घेरा डाला। कथासरित्सागर में अंगारवती को राजा अंगारक की पुत्री कहा है। इसकी 22. मृगावती द्वारा निर्मापित यह किला आज भी कौशाम्बी (यमुना तट पर स्थित गढ़वा कोशल इनाम गांव से एक कि. मी. दूर)
में ध्वंस स्थिति में मौजूद है। कहा जाता है इस किले का घेराव चार मील का था व 32 दरवाजे थे, जिसकी 30-35 फुट
ऊंची दीवारें ध्वस्त हुई दिखाई देती हैं।-तीर्थदर्शन, प्रथम खंड, पृ. 112 23. अज्जचंदणा पाएसु पडिऊण भणइ-मिच्छामि दुक्कडं त्ति-आव. नि., भाग 1 पृ. 325 24. (क) जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास भाग 2, पृ. 245 (ख) जै. सा. बृ. इ., भाग 6 पृ. 201 25. (क) आव. चू. उत्तरार्ध, पत्र 160 (ग) त्रि. श. पु.च. 10/6/186 (ख) आव. नि., भाग 2 पृ. 122
(घ) प्राप्रोने. 2 पृ. 795 26. (क) आव. चू., भा.2 पृ. 161 (ख) आव. हरि. वृ., भा. 1 गाथा 87 (ग) त्रि.श.पु.च. 10/8 (घ) प्राप्रोने. 1 पृ. 7
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