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पूर्व पीठिका
वस्तुत: जैन दर्शन अभेदमूलक दर्शन है, उसने मानव मात्र में जिनत्व के दर्शन किये, फिर चाहे वह नर हो या नारी। स्त्री और पुरूष तो शरीर के नाम हैं, आत्मा उससे भिन्न है जो दोनों में समान है। जिनत्व की प्राप्ति में लिंग, जाति, देश व रंग का कोई महत्त्व नहीं है। बाह्य दृष्टि वालों के लिये ये बाह्य उपाधियाँ बाधक रूप बन सकती हैं, किंतु जिसके अन्तर्चक्षु खुल चुके हैं, वे पुरूष व स्त्री दोनों में कोई अन्तर नहीं देखता। जैनधर्म ने एक स्वर में नारी को 'जिन' बीज को अंकरित करने वाला माना. वही नारी स्वयं 'जिनत्व' अवस्था को भी प्राप्त हो जाय इसमें क्या संदेह है? नारी के प्रति तीर्थंकरों के उदार दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि आज भी जैनधर्म की श्रमणियाँ 'गुरू' के रूप में सम्माननीय स्थान प्राप्त कर रही हैं। 1.13 दिगम्बर परम्परा में श्रमणी-संस्था की उपेक्षा एवं उसके कारण
जैनधर्म की श्वेताम्बर शाखा की अपेक्षा दिगम्बर शाखा में श्रमणियों के प्रति कुछ अनुदारतावादी दृष्टिकोण रहा, उनके अनुसार स्त्री तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती, जब तक वह पुरूष के रूप में जन्म ग्रहण न कर ले। मोक्षपाहुड में तो स्त्री को श्रमणी का दर्जा भी प्रदान नहीं किया गया, वहाँ आर्यिकाओं में मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, और उन्हें पंचम गुणस्थानवर्ती 'उत्कृष्ट श्राविका' कहा है, उनमें महाव्रत तो श्रमण संघ की व्यवस्था मात्र के लिये उपचार से कहे हैं, वस्तुतः उनके संयम को मोक्ष का कारण नहीं माना है। इसका कारण बताते हुए कहा है कि स्त्रियाँ निर्वस्त्र नहीं रह सकतीं, अत: वे मुक्ति भी प्राप्त नहीं कर सकतीं। सुत्तपाहुड में स्त्रियों में निर्भयता व निर्मलता का अभाव, शिथिलता का सद्भाव तथा एकाग्रचिन्तानिरोध रूप ध्यान का अभाव बताकर उनमें दीक्षा का सर्वथा अभाव बताया है
चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण विज्जदि माया तेसिं इत्थीसु णऽसंकया झाण।
वस्तुत : इस परम्परा ने जिनकल्प के आचार को ही साध्वाचार माना, स्थविरकल्प के गच्छवास तथा सचेल आचार को श्रमणाचार में स्थान नहीं दिया, इनके अनुसार वस्त्रधारी पुरूष चाहे तीर्थंकर ही क्यों न हो निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता, कहा भी है
"ण वि सिन्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो' निर्वस्त्रता के प्रति अत्यन्त आग्रह के कारण उनके पास एक ही मार्ग रह गया था कि वे स्त्रियों के मोक्ष का भी निषेध करें।
यद्यपि षट्खंडागम में मनुष्य स्त्री को संजद' गुणस्थान कहा है और संयत गुणस्थान वाला मोक्ष प्राप्त कर सकता है।” वट्टकर स्वामी विरचित मूलाचार की गाथा से भी यह बात स्पष्ट होती है कि जो साधु अथवा आर्यिका यथारूप 94. 'स्त्रीणामपि मुक्तिर्नभवति महाव्रताभावात्' - मोक्षपाहुड गा. 12/313/11 (श्रुतसागरीय टीका) 95. सुत्तपाहुड, गा. 26 96. वही, गा. 23 97. षट्खंडागम, भाग. 1, सूत्र 93 पृ. 332, प्रकाशक-जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती (बरार) 1939 ई.
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