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________________ आचार का पालन करते हैं वे जगत में पूजा, यश व सुख को प्राप्त कर मोक्ष में जाते हैं एवं विघाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। जगपुज्जं कित्तिं सुहं च लद्धूण सिज्झति ॥ 8 इस गाथा में स्पष्ट रूप से आर्यिकाओं के मोक्षगमन को स्वीकार किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन दिगम्बर आचार्य स्त्री-मुक्ति की अवधारणा में विश्वास करते थे, किंतु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है, अर्थात् स्त्री में संयम व मोक्ष के अभाव का विचार मूल जैन - परम्परा से संबद्ध न होकर उत्तरकालीन कुछ आचार्यों की देन है। 1.14 जैन श्रमणी के पर्यायवाची नाम उनकी अन्वर्थता एवं सार्थकता जैनधर्म में श्रमणियों का अस्तित्व इतना प्राचीन और व्यापक रहा है कि देश-काल की परिवर्तित स्थिति में विभिन्न संप्रदायों और विभिन्न भाषाओं में आज तक उन्हें अनेक नामों से संबोधित किया जाता रहा है, जैसे- 'श्रमणी', 'शमणी', 'समणी', 'श्रवणा', 'श्रामणेरी' आदि। इनमें कुछ नाम तो देश और भाषा की वर्तनी - पद्धति के अनुसार व्यवहृत हुए हैं और कुछ आगम- साहित्य एवं ग्रंथों में अथवा बोलचाल में प्रयुक्त हुए हैं। श्रमणी के अन्य पर्यायवाची नामों में 'निर्ग्रन्थी', 'भिक्षुणी', 'संयतिनी', 'व्रतिनी', 'साध्वी', 'आर्यिका', 'क्षुल्लिका', 'महासती', 'स्वामी' आदि प्रमुख है। उक्त नामों की सार्थकता तथा साहित्य में उसके प्रयोग पर एक दृष्टिपात कर लेना भी आवश्यक है। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1.14.1 श्रमणी जैनधर्म में दीक्षित स्त्री को 'श्रमणी' कहा जाता है। 'श्रमणी' शब्द तप और खेद अर्थ वाली श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है। 'श्रमु तपसि खेदे च ' जिसका अर्थ है - परिश्रम करना, तपस्या करना अथवा इन्द्रिय- दमन करना । स्त्रीलिंग में 'णा' अथवा 'णी' प्रत्यय जुड़कर 'श्रमणा' अथवा 'श्रमणी' शब्द बना है ।" जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर 'श्रम' को 'तप' के अर्थ में लिया है " श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणो वाच्यः 100 “ श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः 101 “ श्राम्यति तपस्यतीति श्रमण: "102 अर्थात् श्रम और तप ये दोनों एकार्थवाची हैं। जो बाह्य और आभ्यंतर तप में लीन है, वह 'श्रमणी' है। श्रमणी शब्द का यह अर्थबोध जैन श्रमणियों में पूर्णरूप से परिलक्षित होता है। महावीर युग में सम्राट् श्रेणिक की कालि 98. मूलाचार - 4/196 99. वा. शि. आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश- पृ. 1035, प्रकाशक- मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पुनर्मुद्रण 1987 100. आचारांगशीलांककृत टीका, पत्र 263 101. दशवैकालिक हारिभद्रीय वृत्ति 1/3 पत्र 68 102. व्यवहार भाष्य 4/2 Jain Education International 28 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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