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________________ अतिरिक्त सभी सम्प्रदायों की लगभग एक सहस्त्र श्रमणियाँ आचार्य शिवमुनि जी और आचार्य उमेशमुनि जी की आज्ञानुवर्तिनी श्रमण संघीय श्रमणियों के रूप में पहचानी जाती हैं। हमने अपने शोध प्रबन्ध में कुल 2348 श्रमणियों के व्यक्तित्त्व कृतित्त्व विषयक योगदानों का उल्लेख किया है। इसमें संवत् 1555 से 1993 तक की वे 219 श्रमणियाँ भी हैं, जिनके उल्लेख हस्तलिखित प्रतियों से प्राप्त हुए। गच्छ या सम्प्रदाय का नामोल्लेख न होने से सम्भव है, इनमें कुछ लुंकागच्छीय अथवा कुछ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की श्रमणियाँ भी सम्मिलित हों। सप्तम अध्याय : तेरापंथ-परम्परा तेरापंथ धर्मसंघ के श्रमणी संघ का इतिहास विक्रमी संवत् 1821 से प्रारम्भ हुआ। तब से लेकर अद्यतन पर्यन्त 1700 से अधिक श्रमणियाँ संयम पथ पर आरूढ़ होकर अपने तप-त्याग के द्वारा जिन शासन की चहुमुखी उन्नति में सर्वात्मना समर्पित हैं। आचार्य भिक्षु जी के समय श्री हीराजी 'हीरे की कणी' के समान अनेक गुणों से अलंकृत प्रमुखा साध्वी थीं। श्री वरजूजी, दीपां जी मधुरवक्त्री, आत्मबली, नेतृत्त्व निपुणा प्रमुखा साध्वी थी। श्री मलूकांजी ने आछ के आधार से छमासी, चारमासी आदि उग्र तप एवं सात मासखमण आदि किये। साध्वी प्रमुखा सरदारांजी कठोर तपाराधिका थीं। संघ संगठन व शासनोन्नति में इनका योगदान अपूर्व था। श्री हस्तूजी, श्री रम्भा जी, श्री जेतांजी, श्री झूमा जी, श्री जेठां जी आदि की तपस्याएँ इस भौतिक युग में चौंकाने वाली हैं। साध्वी प्रमुखा गुलाबांजी की स्मरण शक्ति और लिपिकला बेजोड़ थी। श्री मुखां जी अद्भुत क्षमता युक्त, आगमज्ञा साध्वी थीं। श्री धन्नाजी दीर्घतपस्विनी थीं, इन्होंने अन्य तपाराधना के साथ लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की चारों परिपाटी पूर्ण कर संघ में तप के क्षेत्र में एक अद्भुत कीर्तिमान कायम किया। श्री लाडांजी उच्चकोटि की तपोसाधिका थी, इनके वर्चस्वी व्यक्तित्त्व से प्रभावित होकर अकेले डूंगरगढ़ से 36 बहनों व 5 भाइयों ने संयम अंगीकार किया। श्री मौला जी, श्री सोनांजी, श्री कंकूजी, श्री भूरां जी, श्री चांदा जी, श्री अणचांजी, श्री प्यारा जी, श्री भूरा जी, श्री नोजांजी, श्री तनसुखा जी, श्री मुक्खा जी, श्री जड़ाबांजी, श्री पन्ना जी, श्री भतू जी आदि ने विविध तपो अनुष्ठान कर अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया। श्री संतोका जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थीं, ये शल्य चिकित्सा लिपिकला, चित्रकला आदि में भी निपुण थीं। श्री मोहनां जी ने दूर-दूर के प्रान्तों में विचरण कर धर्म की महती प्रभावना की। ____ आचार्य श्री तुलसी जी का शासन तेरापंथ के इतिहास में स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल की साध्वियों ने प्रत्येक क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है। समण श्रेणी द्वारा जो धर्म प्रभावना का व्यापक रूप दृष्टिगोचर होता है, वह भी इस युग की नई देन है। इस युग में श्री गोंराजी संकल्पमना साध्वी थीं, उन्होंने पाकिस्तान (लाहौर) से नेपाल तक और नागालैंड तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया, साथ ही कई ध र्मोपकरणों का कलात्मक निर्माण और सैंकड़ों उद्बोधक चित्र भी बनाये। मातुश्री वदनां जी ने आचार्य तुलसी सहित तीन संतानों को तो संयम मार्ग प्रदान कर जैन शासन को अभूतपूर्व योग प्रदान किया ही, साथ ही स्वयं भी दीक्षित होकर तपोमयी जीवन बनाया। श्री चम्पा जी ने 77 दिन का संथारा कर संघ को गौरवान्वित किया। श्री मालू जी ने 20 वर्ष और श्री सोहनांजी ने 54 वर्ष एक चादर ग्रहण कर परम तितिक्षा भाव का परिचय दिया। श्री सूरजकंवर जी और श्री लिछमां जी सूक्ष्माक्षर व लिपिकला में दक्ष थीं, तो श्री कंचनकुंवर जी शल्य (xxxix) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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