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________________ पूर्व पीठिका 1.19.1.5 अन्य विशेष नियम श्रमणियों के हितार्थ आगमों में कुछ विशिष्ट नियम भी बनाये हैं, जिनका पालन श्रमणियों के लिये अनिवार्य और श्रमणों के लिये एच्छिक है जैसे- निर्ग्रन्थी को सर्वथा शरीर वोसिरा कर कायोत्सर्ग करना निषिद्ध है इसी प्रकार गाँव के बाहर जाकर आतापना लेना, किसी भी एक आसन से स्थित रहने का अभिग्रह करना आकुंचनपट्टक रखना - घुटने ऊंचे करके कमर और पैरों को बांध देना (ऐसा वस्त्र) जिससे दीवार का सहारा लेने के समान आराम मिले, आलंबनयुक्त आसन (कुर्सी आदि) तथा सविषाण आसन सींग जैसे ऊँचे उठे हुए छोटे-छोटे स्तंभ जो गोल एवं चिकने होने से पुरूष चिह्न से प्रतीत होते हैं उन पर बैठने का निषेध है। इसी प्रकार साध्वी को डंठलयुक्त तुंबी, सवृन्त पात्र केसरिका, (पात्र पोंछने का कपड़ा दंड सहित ), काष्ठ की डंडीवाला पाद प्रोंछन उपयोग करना वर्ज्य है। 231 साध्वियों के लिये इस प्रकार के पृथक् नियम बनाने का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि इन नियमों को बनाने का उद्देश्य केवल ब्रह्मचर्य की रक्षा है न कि महाव्रतों की ज्येष्ठता- कनिष्ठता बताना, महाव्रतों की अपेक्षा श्रमण- श्रमणी दोनों समान हैं। 232 1.19.1.6 श्रमणियों का विचरण क्षेत्र श्रमणियाँ श्रमणों के समान संपूर्ण भारत के आर्य क्षेत्रों में विचरण करती थी। वे पूर्व में अंग-मगध तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक पश्चिम में स्थूणा देश (स्थानेश्वर ) तक और उत्तर में कुणाल देश ( श्रावस्ती जनपद ) तक विचरती थीं। इस विचरण के दो प्रमुख उद्देश्य थे- संयम गुणों की वृद्धि एवं जिनशासन की प्रभावना । भाष्य में साढ़े 25 आर्य देशों नाम गिनाये हैं | 233 आर्यदेशों में विचरते हुए ज्ञान, दर्शन चारित्र आदि गुणों की अभिवृद्धि तथा गच्छ की वृद्धि भी होती थी 1234 यदि अनार्य क्षेत्र में जाने से भी रत्नत्रय की हानि की संभावना न हो तो वहाँ भी श्रमणियाँ जा सकती हैं। भद्रबाहु, स्थूलभद्र आदि 1500 श्रमणों ने नेपाल में विहार किया था। आचार्य कालक पारस कूल (ईरान) जाकर वहाँ के शाहों को अपने साथ भारत लाये थे | 235 1.19.1.7 श्रमण - श्रमणी के पारस्परिक सहयोग के नियम श्रमण संघ को निर्दोष एवं चिरजीवी बनाये रखने के लिये जैनाचार्यों ने श्रमण- श्रमणी के पारस्परिक संबंधों की मर्यादाएँ भी सुनिश्चित की है। जिनमें कुछ सामान्य नियम है कुछ आपवादिक नियम है। सामान्य नियम :- श्रमणों एवं श्रमणियों को यथासंभव एक-दूसरे से दूर रहने का विधान किया है। अकेली 231. वही सू. 31-36, निर्युक्ति गाथा 5966-75 232. 233. बृहत्कल्प सूत्र 48 234. आरियविसयम्मि गुणा, णाण-चरण- गच्छवुड्ढीय 11 - बृहत्कल्प भाष्य गाथा 3265 235. (क) आवश्यक चूर्णि पृ. 186, (ख) निशीथ चू. 10, 2860, पृ. 59. ... बंभवय रक्खणट्ठा वीसुं वीसुं कया सुत्ता- बृ. नि., गा. 1045-47 Jain Education International 49 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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