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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्रमणी, श्रमण के साथ बातचीत नहीं कर सकती। कदाचित् अध्ययन या शंका-समाधान की दृष्टि से कुछ पूछना हो तो गणिनी साध्वी के साथ जाए और उसे आगे करके प्रश्नादि पूछे।236
__ श्रमणों की वसतिका में श्रमणियों को तथा श्रमणियों की वसतिका में श्रमणों को अल्पकालिक क्रियाएँ करना भी निषिद्ध है। अर्थात् बैठना, लेटना, स्वाध्याय करना, आहार, भिक्षा ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियाएँ नहीं करनी चाहिये।237 इससे लोकगर्दा तथा लोकनिन्दा होने का भय तो है ही, साथ ही संयम-विराधना की भी संभावना है। व्यवहार सूत्र में साधु-साध्वियों में पारस्परिक निम्नलिखित सेवाकार्य निषिद्ध किये हैं(1) आहार-पानी लाकर देना-लेना अथवा निमंत्रण करना (2) वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों की याचना करके लाकर देना अथवा स्वयं के याचित उपकरण देना (3) उपकरणों का परिकर्म कार्य-सीना, जोड़ना, रोगन आदि लगाना (4) वस्त्र या रजोहरण आदि धोना (5) रजोहरण आदि उपकरण बनाकर देना। (6) प्रतिलेखन आदि करना।38 कल्पसूत्र में साधु-साध्वियों को पारस्परिक पत्राचार करना भी वर्जित किया है।239
दिगम्बर परम्परा में तो श्रमण और आर्यिका के बीच परस्पर वंदना को भी योग्य नहीं माना है, तथापि निषेध भी नहीं किया है।240 यदि वंदना करनी हो तो आचार्य को 5 हाथ दूर से उपाध्याय को 6 हाथ दूर से एवं साधु को 7 हाथ दूर से वंदना करनी चाहिये। वंदना करती हुई वे श्रमण को 'नमोऽस्तु' शब्द न कहकर 'समाधिरस्तु' या 'कर्मक्षयोऽस्तु' कहती हुई गवासन पूर्वक बैठकर वंदना करती हैं।241
आपवादिक नियम :- जहाँ संयम सुरक्षा का प्रश्न हो वहाँ श्रमण-श्रमणी के परस्पर एक-दूसरे का सहयोग भी करने के विधान आगमों में उल्लिखित हैं। जैसे श्रमण के पैर में कांटा चुभा हुआ हो और वह स्वयं निकालने में असमर्थ है, तो उसे अपवाद रूप में श्रमणी निकाल सकती है इसी प्रकार श्रमणी नदी में फिसलती, गिरती या डूबती दिखाई दे, अन्य कोई सहारा नहीं हो, ऐसे में श्रमण उसको बचाने की भावना से उसका स्पर्श करता है तो वह प्रायश्चित् का पात्र नहीं होता है। ऐसे ही विक्षप्तचित्त श्रमणी को श्रमण हाथ पकड़कर यथोचित स्थान पर पहुँचा देते हैं, तो अपवाद स्वरूप इसे दोष नहीं माना जाता।42 किंतु, ये सब अपवादिक कार्य है। उत्सर्ग मार्ग में तो श्रमणी एवं श्रमण का संबंध धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है, वह भी मर्यादित।
1.19.1.8 श्रमणियों का अंतिम महान व्रत संलेखना
संलेखना का अर्थ है संपूर्ण भक्त-पान, उपधि तथा कषायों का त्याग कर जीवन के अंतिम समय तक देह के प्रति निर्ममत्व भाव से विचरण करना। श्रमणियाँ उक्त व्रत को तब अंगीकार करती हैं, जब वे यह अनुभव करती हैं
236. तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु। गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्व।।
-मूलाचार वृत्ति सहित 4/178 237. बृहत्कल्प, उद्देशक 3 सूत्र 1 238. (क) व्यवहार सूत्र, उ. 5 सू. 20, पृ. 369 239. कल्पसूत्र, पत्र 39 240. मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्पर वन्दनापि न युक्ता। यदि ता वन्दन्ते तदा मुनिभिर्नमोऽस्तिवति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं? समाधिकर्मक्षयोस्तिवति।
-मोक्षपाहुड गाथा 12 की श्रुतसागरीय टीका 241. पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु या परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति।।
- मूलाचार 4/195 वृत्ति सह 242. बृहद्कल्प सूत्र उ. 6 सू. 3-18
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