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________________ पूर्व पीठिका कि अब शरीर संयम के नियमों का पालन करने में असमर्थ है अथवा वृद्धावस्था या असाध्य रोग के कारण उसका जीवन पूर्णत: दूसरों पर निर्भर हो गया है अथवा कभी यह लगे कि ब्रह्मचर्य का खंडन किये बिना जीवन जीना संभव नहीं है ऐसी स्थिति में देह के प्रति निर्ममत्व होकर वह देह का विसर्जन कर देती है।243 अन्तकृद्दशांग सूत्र में काली आदि दस रानियों का वर्णन आता है कि तपः साधना के पश्चात् उनका शरीर जब अत्यंत कृश हो गया, तब उनके मन में विचार आया कि शरीर में जब तक स्वल्प सी शक्ति विद्यमान है तथा मन में श्रद्धा धैर्यता और वैराग्य भी है तब तक हमारे लिये यही श्रेयस्कर है कि हम भक्त-पान का त्याग कर संलेखना व्रत अंगीकर कर लें। उन्होंने एक मास की संलेखना स्वीकार की और परिणामों की उत्कृष्टता से अंत में सर्व कर्म क्षय कर सिद्धगति को प्राप्त हुईं।244 श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में ऐसी सैंकड़ों श्रमणियों के उदाहरण है, जिन्होंने जीवन के अंत में संलेखना करके समाधि पूर्वक देह का त्याग किया था। 1.19.2 दिगंबर परम्परा के नियम दिगम्बर संप्रदाय के ग्रन्थों में आर्यिकाओं के नियम अलग से निर्धारित नहीं किये गये। वहाँ इतनी ही सूचना है, कि 'मुनियों के लिये जो मूलगुण और समाचार का वर्णन किया है, वही सब मूलगुण और समाचार विधि आर्यिकाओं के लिये भी है।45 केवल उन्हें वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तरयोगों को करने का अधिकार नहीं है। इसके अतिरिक्त आर्यिकाओं के लिये अलग से भी कुछ नियम कहे हैं उन्हें बिना प्रयोजन के परगृह में नही जाना चाहिये, यदि जाना आवश्यक हो तो गणिनी से पूछकर वृद्धा आर्यिकाओं के साथ में मिलकर ही जाना चाहिये। आर्यिकाओं के लिये रोना, नहलाना, खिलाना, भोजन पकाना, सूत कातना, षट्विध आरम्भ करना, यतियों के पैर में मालिश करना, धोना और गीत गाना वर्जित है। आर्यिकाएँ विकार रहित वस्त्र और वेष धारण करती हैं, पसीना युक्त मैल और धूलि से लिप्त रहती हुई वे शरीर संस्कार से शून्य रहती है। क्षमा-मार्दव आदि धर्म, माता-पिता के कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं।246 ये दो साड़ी रखती हैं, तीसरा वस्त्र नहीं रख सकती हैं, फिर भी ये लंगोटी मात्र धारी ऐलक से अधिक पूज्य मानी गयी हैं, क्योंकि इनके उपचार से महाव्रत हैं, किंतु ऐलक के अणुव्रत ही हैं। सागारधर्मामृत में कहा है- "ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोट में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य भी नहीं हैं। किंतु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्व रहित होने से उपचार से महाव्रती है। 247 मुनियों से इनमें केवल दो ही चर्याओं का अन्तर है-साड़ी पहनना और बैठकर आहार करना। 1.20 जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन-स्रोत जैन श्रमणी-संघ के इतिहास को जानने के मुख्य तीन साधन हमारे पास हैं - 243. आचारांग सूत्र 1/8 244. अन्तकृद्दशांग सूत्र, वर्ग 8 245. एसो अज्जाणंपि य समाचारो जहाक्खिओ पुव्वं। सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्ग।। -मूलाचार 4-182, 187 246. मूलाचार 4/182-90 247. कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वात् नाहत्यार्यो महाव्रतम्। अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटिकेऽप्यार्यिकाअर्हति। -सागार धर्मामृत पृ. 518 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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