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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास (i) साहित्यिक स्रोत : जिसमें आगम, आगम की व्याख्याएँ, चूर्णि नियुक्ति, टीका, भाष्य आदि तथा
पट्टावलियाँ, ग्रंथ-प्रशस्तियाँ सचित्र हस्तलेख, विज्ञप्ति-पत्र, प्रबन्ध एवं इतिहास ग्रंथ आदि सम्मिलित हैं। (ii) अभिलेखीय स्रोत - ताम्रपत्र, शिलालेख आदि (ii) पुरातात्त्विक स्रोत - मूर्ति, चरणपादुका आदि 1.20.1 साहित्यिक-स्रोत
1.20.1.1 आगमः
जैन श्रमणी-संघ के इतिहास पर दृष्टि-निक्षेप करने के लिये आप्त कथित आगम ही सर्व प्रामाणिक एवं सर्वप्राचीन आधार है। जैनधर्म में आगमों को वही स्थान प्राप्त है जो स्थान ब्राह्मण-धर्म में वेदों को एवं बोद्धधर्म में त्रिपिटकों को है। आगम भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट वाणी है, अत: उनका समय भी महावीर-काल ही है, सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट होने से उसकी स्वतः प्रामाणिकता है। इतिहासविद् मनीषियों ने भी आचारांग सूत्र को ई. पू. पाँचवीं चौथी शताब्दी का सिद्ध किया है, अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी आचारांग पूर्वकालीन है। यद्यपि इसमें पूर्णरूपेण धर्म एवं दर्शन का वर्णन है, तथापि 'समण' 'समणी' दोनों शब्दों के भिन्न प्रयोग यह सिद्ध करते हैं कि भगवान महावीर के समय 'श्रमणी-समुदाय' की भी संख्या एवं तप, संयम की दृष्टि से अहं भूमिका रही है।
समवायांग सूत्र, जिसका समय विद्वानों ने ईसा की तृतीय-चतुर्थ शताब्दी माना है, उसमें सर्वप्रथम चौबीस तीर्थंकरों की प्रमुख श्रमणियों का नामोल्लेख उनकी शिष्याओं की संख्या तथा सूत्र रूप संक्षिप्त व्यक्तित्व प्राप्त होता है। आचार्य शययंभव रचित दशवैकालिक सत्र ई. प. पाँचवीं-चौथी शताब्दी एवं उत्तराध्ययन सूत्र जो ई. पू. चौथी-तीसरी शताब्दी का मान्य है। इनमें राजीमती की बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के प्रति एकनिष्ठ अनन्य भक्ति एवं रथनेमि को सन्मार्ग पर लाकर संयम में स्थिर करने का प्रेरक वर्णन संपूर्ण 22वें अध्ययन में ग्रथित किया गया है। अंगसूत्रों में विशालकाय महासागर की भांति भगवती सूत्र (विद्वमान्य ई. सन् द्वितीय शताब्दी) में जयंति की ज्ञान-गरिमा, मृगावती का बुद्धि-चातुर्य, प्रियदर्शना की अनाग्रही-वृत्ति आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है।
ज्ञातासूत्र, अन्तकृद्दशांग सूत्र आदि धर्मकथानुयोग के ग्रन्थ जिन्हें क्रमशः ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर पंचम शताब्दी तक के संग्रह ग्रन्थ माने हैं, उनमें अन्तकृद्दशांग सूत्र में अरिष्टनेमि काल की श्रमणियों का सर्वप्रथम विस्तृत वर्णन देखने को मिलता है। यहाँ उनके वैराग्य का कारण, दीक्षा की आज्ञा, दीक्षा-विधि, दीक्षा के पश्चात् तप-संयम एवं ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना एवं अंत में संलेखना व सिद्धि प्राप्ति तक का सांगोपांग विवरण है, उसके पश्चात् इसी सूत्र में महावीरकालीन सम्राट श्रेणिक की नंदा आदि तेरह व कालि आदि दस महारानियों के तप का जो लोमहर्षक चित्र उपस्थित किया गया है, वह वस्तुतः जैनधर्म की उत्कृष्ट साधना एवं त्याग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है ऐसा वर्णन विश्व के किसी धार्मिक इतिहास में दृष्टिगोचर नहीं होता। ज्ञातासूत्र, निरयावलिका एवं पुष्पचूलिका आदि आगम ग्रंथों में विशेष रूप से पार्श्वनाथ भगवान के श्रमणी समूह एवं तत्कालीन सामाजिक परिवेश का परिचय मिलता है।
इस प्रकार 'आगम' जैन श्रमणियों के इतिहास को जानने की आधारभूमि है। अवशेष सम्पूर्ण जैन-साहित्यिक कृतियाँ इनके उत्तरवर्ती काल की हैं।
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