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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास की। कई आगम, स्तोक, संस्कृत, व्याख्यान, अध्यात्म काव्य एवं ग्रंथों का आपने अध्ययन किया। संवत् 2001 से अग्रणी पद पर वर्षावास करते हुए अनेकों लोगों को धर्म के प्रति आकृष्ट किया। शल्य-चिकित्सा करने में भी आप निपुण थीं, आंखों के ऑपरेशन, फोड़े-फुसियों के ऑपरेशन, इंजेक्शन आदि लगाने में कुशल थीं। कला के विविध और नवीन आयाम आप द्वारा प्रकाश में लाये गये। आपके तेजस्वी व्यक्तित्व और हृदयस्पर्शी वाणी से 15 भाई-बहन संघ में दीक्षित हुए। अंतिम समय तक धर्मशासन की महती प्रभावना करती हुईं आप संवत् 2034 से देशनोक में स्थिरवासिनी हुईं, संवत् 2042 से 60 के मध्य आप कब स्वर्गवासिनी हुईं, इसकी निश्चित तिथि ज्ञात नहीं हो सकी। 7.10.39 श्री सिरेकंवरजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 1982-स्वर्ग सं. 1942-60 के मध्य) 8/137 आप मालू गोत्रीय जीवराजजी की पुत्री थीं, 11 वर्ष की वय में कार्तिक शुक्ला पंचमी बीदासर में दीक्षा ग्रहण की, ज्ञान व तप की आराधना के साथ-साथ आपने लगभग 1 हजार व्यक्तियों को सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान की। पंजाब में विचरण करने वाली तेरापंथ संघ की आप सर्वप्रथम साध्वी थीं। आपने उपवास से आठ दिन तक प्रायः लड़ीबद्ध तप किया। आपका स्वर्गवास सं. 1942 से 60 के मध्य हुआ। 7.10.40 श्री पानकंवरजी 'पचपदरा' (सं. 1982-स्वर्ग. सं. 1942-60 के मध्य) 8/139 आपके पिताश्री चौथमलजी संकलेचा थे। माता जमनांजी के साथ 10 वर्ष की वय में कार्तिक शुक्ला पंचमी बीदासर में आप दीक्षित हुईं। आपकी लिपि स्वच्छ, सुंदर थी, आपने लगभग 5 पुस्तकें (एक 400-500 पत्र की) लिपिबद्ध की। संवत् 2000 से आपने अग्रणी के रूप में विहरण किया, आपके मधुर उपदेशों को श्रवण कर कई व्यक्तियों ने सम्यक्त्व दीक्षा (गुरु धारणा) ग्रहण की। आपके स्वर्गवास की निश्चित् तिथि ज्ञात नहीं है। 7.10.41 साध्वी-प्रमुखा श्री लाडांजी 'लाडनूं' (सं. 1982-2026) 8/140 आपश्री का जन्म लाडनूं में संवत् 1960 श्रावण शुक्ला तृतीया को पिता श्री झूमरलालजी और मातुश्री वदनांजी के यहां हुआ। लघुवय में ही आपका विवाह स्थानीय श्री हीरालालजी बैद के साथ हुआ, छह वर्ष बाद ही पतिवियोग से लाडांजी का मन संसार से उचट गया, संवत् 1982 पौष कृष्णा पंचमी के दिन लाडांजी ने अपने लघु भ्राता तुलसीजी के साथ दीक्षा अंगीकार की। आपकी धैर्यता, गंभीरता, विनय, सहनशीलता आदि विरल विशेषताओं से प्रभावित होकर संवत् 2002 में आचार्य श्री तुलसी ने आपको 'प्रमुखा' पद पर प्रतिष्ठापित किया। आपने आचार्य श्री तुलसी के साध्वी-समाज में शिक्षा के नये-नये आयामों को सफल बनाने का सतत प्रयास किया। आपकी प्रबल प्रेरणा से साध्वी-समाज में हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत का अच्छा विकास हुआ। गद्य-पद्य, कविता, निबंध, संस्कृत, श्लोक आदि की रचना करने में साध्वियाँ निपुण बनी। नारी-जागरण की दिशा में भी आपने अच्छे कार्य किये, आपके उद्बोधन से सामाजिक रूढ़ियां समाप्तप्रायः हुईं। आपने अपने जीवन में स्वाध्याय और खाद्य-संयम को विशेष महत्त्व दिया, एक वर्ष में तीन लाख श्लोकों का स्वाध्याय आपने नियमित रूप से किया। आपको प्रबल वेदनीय कर्म का उदय रहा, तथापि अपना धैर्य और मनोबल क्षीण नहीं होने दिया, आपकी कष्ट सहिष्णुता को देखकर आचार्यश्री ने आपको 'सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति' की उपाधि से सम्मानित किया। संवत् 2026 को बीदासर में आपका महाप्रयाण हुआ। साध्वी संघमित्राजी ने आपकी बहुमुखी जीवन-झांकी को 'बूंद बन गई गंगा' में संजोने का प्रयास किया है। 840 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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