SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 634
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.15 श्री गंगीदेवीजी (सं. 1919) आपका जन्म पंजाब प्रान्त के सुनाम नगर मे कम्बों किसान परिवार में हुआ। तथा दीक्षा संवत् 1919 में संपन्न हुई। आप अत्यंत चारित्रवान और धैर्यवान् साध्वीजी थीं। एकबार आपकी गुरूणी श्री ताबोजी ने रूष्ट होकर 4-5 साध्वियों के निमित्त लाया हुआ सारा आहार करने की आज्ञा दी, आपने उस आज्ञा को शिरोधार्य कर सारा आहार दिनभर में पूर्ण कर लिया, उसके पश्चात् 21 उपवास किये। आपकी इस प्रकार विनय भक्ति देखकर गुरूणीजी को पश्चाताप भी हुआ, लेकिन साथ ही अपनी होनहार शिष्या पर सात्विक गर्व भी अनुभव हुआ। आप इतनी क्षमाशील थीं कि एकबार किसी शरारती ने सद्यजात कुतिया के बच्चे को पकड़कर आपके पात्र में डाल दिया, और 'कहा, तुम दया का उपदेश देते हो न? लो इस बच्चे की दया पालो।' आपने उस पर किंचित् भी क्रोध न करते हुए ऐसी करूण दृष्टि बरसाई, कि वह स्वयं अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगा। एकबार रात्रि में किसी ने दुर्भावना पूर्वक आपके पात्र में रोटी डालकर रात्रिभोजन का आरोप लगा दिया, तब भी आप शांत रहीं। किसी समय आप अपनी शिष्याओं सहित दोआबा की ओर जा रही थीं। मार्ग में किसी संत-द्वेषी व्यक्ति ने आपको देवाधिष्ठित मकान में ठहरा दिया। रात्रि में वहाँ का स्थानीय देव उपद्रव करने लगा। संकटापन्न स्थिति देख आप इष्ट मंत्र के ध्यान में तल्लीन हो कर बैठ गई, आपकी दिव्य व शांत मुखमद्रा से देव प्रभावित हुआ, उसने साध्वीजी से क्षमा मांगी। साध्वीजी ने उसे भविष्य में किसी संत को न सताने का नियम करवाया। इस प्रकार के अनेकों संस्मरण आपके जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। आपकी 12 शिष्याएँ थीं, वर्तमान में दो के नाम उपलब्ध हैं- श्री नंदकौरजी एवं श्री मथुरादेवीजी। पटियाला में 8 दिन के संथारे के साथ आपने देहत्याग किया। 6.3.2.16 गणावच्छेदिका श्री निहालदेवीजी (सं. 1920-90) जांलधर के श्री लक्खूशाहजी ओसवाल व सरस्वती देवी के यहां संवत् 1905 में जन्म लेकर बाल्यवय से ही विरक्तमना निहालदेवीजी ने संवत् 1920 में साध्वी खेमाजी की प्रशिष्या श्री सुखदेवीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपने अपनी प्रखर प्रतिभा से जैन-जैनेतर दर्शनों का गहन अभ्यास किया, और बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों से वाद-विवाद कर उन्हें सत्य ज्ञान की ज्योति प्रदान की। पहले आप आचार्य श्री नागरमलजी की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं. संवत 1930 में उनके स्वर्गवास के बाद आप आचार्य अमरसिंहजी की आज्ञा स्वीकार करने लगीं। लुधियाना में उनके दर्शनार्थ आप-अमृताजी, कर्मोजी, गुरूदत्ती जी, पारोजी, अक्को जी आदि 15 साध्वियों के साथ पधारी थी। आपकी योग्यता, व्यवहारकुशलता, मधुरता एवं विद्वत्ता को देखकर वि. सं. 1951 में आचार्यश्री मोतीरामजी महाराज ने आपको 'गणावच्छेदिका पद प्रदान किया। आपके साथ ही अन्य तीन साध्वियाँ श्री अमृताजी, श्री कर्मोजी एवं गुरूदत्तीजी भी 'गणावच्छेदिका' पद पर प्रतिष्ठित की गई। ये सब गौरवशीला, वर्चस्वी, मेधावी, परम पंडिता विदुषी कवियत्री और पांचाल प्रदेश की निर्भीक साध्वी रत्ना थीं। आपकी तीन शिष्याएँ थीं-श्री गंगादेवी, तथा श्री खूबांजी, श्री जीवीजी।।2 111. संपादिका- साध्वी सुषमा एवं संगीता, अध्यात्म साधिका सुंदरी, खंड 6 पृ. 8 112. श्री तिलकधर शास्त्री, संपादक-संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 217 572 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy